बस्तर की खोज करें आइए ऐतिहासिक मंदिरों से शुरुआत करें, जो बस्तर की सांस्कृतिक विरासत की आधारशिला हैं। ये मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं हैं; वे इस क्षेत्र के समृद्ध इतिहास और जटिल वास्तुकला के जीवंत प्रतीक हैं। दन्तेश्वरी मंदिर, दन्तेवाड़ा शिवलिंग - नागयुगीन मंदिर के गर्भगृह में वगांकार जलहरी के मध्य एक छोटा शिवलिंग अवस्थित है, जिसकी मोटाई की अपेक्षा ऊँचाई बहुत कम है। गर्भगृह की विशेषता यह है कि यह मंदिर के आधार तल के स्तर पर है, जबकि जगमोहन (मण्डप) का तल गर्भगृह से लगभग 4 फुट ऊँचा है। जगमोहन से गर्भगृह में प्रवेश हेतु सोपान बने हुये हैं, मानो शिवलिंग पाताल में रिथत हो। शिवलिंग एवं जलहरी बालुकाश्म से निर्मित हैं। चित्रकोट जलप्रपात के कुछ पहले ही घुमरमुण्ड नामक एक छोटा सा पारा है यहां छोटा सा चढ़ाव के बाद लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर यहां एक मण्डप में बस्तर अंचल का संभवतः सबसे बड़ा शिवलिंग है, जो प्राचीन शिवलिंग है। शिवलिंग की विशालता और आयताकार गर्भगृह से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उक्त शिवालय भी, नारायणपाल मंदिर के समकालीन हो सकता है। इसे भी नागवंश के शासकों ने 11-12 वीं शताब्दी में निर्माण किया है। देखरेख के अभाव देवालय नष्ट हो गया है। मंदिर नागर शैली में बनी है। मंदिर के पूर्व में खर्जुरिबंध नामक छोटा सा तालाब भी निर्मित किया गया है। अगर आप मंदिर प्रांगण में जाते हैं तो वर्तमान में मंदिर में केवल छः प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं। गर्भगृह में विष्णु, गर्भगृह के दक्षिणी भाग में गणेश तथा शिखर पर आमलक के नीचे चारों कोणों (विदिशाओं) ईशान, आग्नेय, नैऋत्य एवं वायव्य में एक-एक दिक्पाल की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के भीतर तथा बाहर अनेक रिक्त आले हैं, जिनकी प्रतिमाएं निकाल ली गई हैं। इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर में काले प्रस्तर से निर्मित एक बड़ी प्रतिमा है, जिसका शीश, भुजाएं एवं पैर खण्डित होने से पहचान करना कठिन है, किन्तु प्रतिमा कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। पतिमा द्विभुजी है तथा सभी ओर से उत्कीर्ण है। प्रतिमा के अंगों का अनुपात व अलंकरण उत्कृष्ट है। प्रतिमा के कटे भाग पर एक अलंकृत कृपाण उत्कीर्ण है। चित्रकोट जलप्रपात
तीरथगढ जलप्रपात
तामड़ा जलप्रपात/मयूरा जलप्रपात
चित्रधारा जलप्रपात
मण्डवा जलप्रपात
हांदावाड़ा जलप्रपात
सातधार जलप्रपात
चरें-मरे जलप्रपात
मलाजकुण्डम जलप्रपात
फूलपाड़ जलप्रपात
लंकापल्ली जलप्रपात
मुत्तेखड़का जलप्रपात
मलगेर जलप्रपात
नंबी जलप्रपात
कोटमसर गुफा
कैलाश गुफा
दण्डक गुफा
अरण्यक गुफा
रानी गुफा
सकलनारायण गुफा पं. गंगाधर सामंत श्बालश् पुरातत्व संग्रहालय मानव विज्ञान संग्रहालय जगदलपुर
केशकाल घाटी
केशकाल का टाटामारी
गढ़िया पहाड़
कांकेर का राजमहल
क्या आप बस्तर की यात्रा की योजना बना रहे हैं? इस मनमोहक क्षेत्र को देखने के लिए कम से कम एक महीने का समय निकालें - वादा है कि यहां गुजरा हल पल आपको रोमांचित कर देगा। बस्तर में पर्यटन इतिहास, संस्कृति और प्राकृतिक सुंदरता का एक रोमांचक मिश्रण है। स्वदेशी और विदेशी दोनों ही सैलानी अक्सर अविस्मरणीय अनुभवों और यहां पर्यटन की संभावनाओं से इंकार नहीं करते ।इस ब्लाग में, हम आपको उन जगहों पर ले जाएँगे जो आपको तरोताजा और प्रेरित करेंगी। पाठकों की दिलचस्पी और आसान बनाने के लिए, हमने बस्तर पर्यटन को चार श्रेणियों में विभाजित किया है ऐतिहासिक मंदिर, प्राकृतिक गुफाएँ , लुभावने झरने, और जीवंत शहर।
दंतेवाड़ा में स्थित दंतेश्वरी मंदिर, जो 52 शक्तिपीठों में से एक है, अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा और सांस्कृतिक महत्व के कारण अवश्य जाना चाहिए। बारसूर में स्थित मामा-भांजा मंदिर अपनी अनूठी मूर्तियों से आगंतुकों को आकर्षित करता है, जबकि नारायणपाल मंदिर प्राचीन काल की बेहतरीन शिल्पकला का प्रमाण है।
इनमें से प्रत्येक मंदिर एक कहानी कहता है, जो आगंतुकों को बस्तर के जीवंत इतिहास और विरासत से गहराई से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता है। ये पवित्र स्थान पर्यटकों को बस्तर की आत्मा में डूबने के लिए तैयार और प्रेरित करते हैं।
क्या आप और अधिक जानने के लिए तैयार हैं? आइए उन अन्य जगहों के बारे में जानें जो आपकी सूची में होने चाहिए!
1 बस्तर के ऐतिहासिक मंदिर
जगदलपुर से लगभग 85 किलोमीटर की दूरी पर दन्तेवाड़ा नगर बसा हुआ है। इस दन्तेवाड़ा का प्राचीन नाम तारलापाल था, जो कभी दण्डामी माड़ियों का क्षेत्र रहा है।
दन्तेवाडा जिला एक प्राचीन पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक महत्व का स्थल है। यह बस्तर रियासत के चालुक्य राजवंश अथवा काकतीय राजवंश की कुलदेवी का मंदिर है, जो शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम तट पर स्थित है। यह मंदिर देवी दुर्गा का ही एक प्रतिरुप है। आज दन्तेवाड़ा दुर्गा के एक रुप दन्तेश्वरी मांई के नाम से देश-विदेश में विख्यात है, आज यह छत्तीसगढ़ राज्य का एक जिला तथा जिला का मुख्यालय भी है। दन्तेश्वरी देवी चालुक्य राजवंश की कुलदेवी मानी जाती हैं, वारंगल से राजाओं के साथ आकर राजदेवी और बाद में जनदेवी या लोकदेवी कहलाईं, अतएव बस्तर के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी आराधना होती है। इस अंचल में, देवी दन्तेश्वरी एक आंचलिक नाम है। कहा जाता है कि मां दन्तेश्वरी जगतजननी मां दुगदिवी की ही प्रतिरूप है, वही द्रोपदी, वही सती पार्वती हैं। जगतजननी दुर्गा के अनेक रूप प्रचलित हैं और उनके विभिन्न रूप बस्तर अंचल में मिलते हैं। बस्तर अंचल के लोक-जीवन में व्याप्त पूजा-भावना का एक ऐसा ग्रामीण प्रतीक है, जिसने लोक-विश्वास को पूरी तरह प्रभावित किया है और उनके नाम से ही उनके स्थान का भी नामकरण दन्तेवाड़ा उजागर हुआ है। दन्तेश्वरी अनेक रूपों में मावली, शीतला माता, शारदा, सरस्वती, सिंहवाहिनी, ब्रम्हचारिणी, प्रकृता, जगत विख्यात, बुद्धिदाता, वरदायिनी, कौमारी, वागेश्वरी भारती, दुर्गा के नाम से विख्यात हैं।
एक किंवदंती के अनुसार बस्तर का नामकरण देवी के वस्त्र अर्थात् आंचल से ही हुआ है। चूंकि ये राज्य की देवी है, अतः इनके पुजारी राजा ही होते हैं। अन्य देवीयों के बारे में इस तरह का कोई विधान नहीं है। दन्तेश्वरी आदि-शक्ति हैं। इनकी आकृति के संबंध में विविध बातें मिलती हैं। इनका सौंदर्य अनुपम है। अष्ट भुजावाली यह देवी सिंह की सवारी करती है और आततायियों का विनाश करती हुई अपने भक्तों की रक्षा करती है। प्रतीत होता है कि दन्तेश्वरी शक्ति या कालीदेवी, दुर्गा का ही अवतरण है। दन्तेश्वरी देवी का प्रमुख पर्व विश्व प्रसिद्ध दशहरा है, जो जगदलपुर में आज भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। यह पर्व विश्व में अधिक दिनों तक चलने वाले पर्वों में से एक है.
देवी मां के मुख मण्डल में अपूर्व तेजस्विता विद्यमान है, जिसकी आंखें चांदी से निर्मित हैं। गहरे, चिकने काले पत्थरों से निर्मित मूर्ति के छः भुजाएं हैं, जिनमें शंख, खड्ङ्ग, त्रिशुल, घंटा, पाश और एक हाथ से राक्षस के बाल पकड़े हुए हैं। मूर्ति का एक पांव सिंह पर रखा हुआ है, मांई जी के प्रतिमा के पैरों के समीप दाहिनी ओर एकपाद भैरव की मूर्ति तथा बाईं ओर भैरवी की मूर्ति स्थापित है। मांई दन्तेश्वरी जी के भव्य मूर्ति के पीछे पृष्ठ भाग पर मुकुट के उपर पत्थर से तराशी गई कलाकृति, नरसिंह अवतार के द्वारा हिरण्य कश्यप के संहार का दृश्य है।
वर्तमान के दन्तेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में स्थापित देवी दन्तेश्वरी की भव्य प्रतिमा, छः भुजाओं वाली, गहरे काले रंग की चिकने पत्थर से निर्मित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सती का ही प्रतिरूप हैं। पृष्ठभूमि में देवी के मुकुट के समीप नरसिंह अवतार के रूप में हिरण्य कश्यप के संहार का दृश्य अंकित है।
मंदिर के प्रवेशद्वार से लेकर गर्भगृह तक भैरव मण्डप, महामण्डप, मुख्य मण्डप, अतंराल ओर गर्भगृह स्थापित है। मंदिर के सभी खण्डों में गहरे, काले चिकने पत्थरों से निर्मित प्रतिमाओं को देखकर एहसास होता है कि मूर्तिकारों की यहां, प्रतिमाओं की एक अनोखी दुनिया बसा दी है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्थित गरुड़ स्तंभ के बारे में लोग अवश्य ही संशय करते हैं कि गरुड़ स्तंभ का इस देवी मंदिर के सामने क्या काम ? किन्तु दन्तेश्वरी नारायणी के एक रुप में भी पूजा पाती हैं। यही कारण है कि इनके मंदिर के सामने गरुड़ स्तंभ है। मंदिर के बरामदे से आगे बढ़े तो महामण्डप आता है, इस मण्डप में तीन उपमंदिरें हैं। एक मंदिर में बाबा भैरव विराजमान हैं और उनके दोनों बाजूओं में भगवान शंकर विराजे हैं। इस मण्डप को भैरव मण्डप कहा जाता है। इस महामण्डप में पांच शिव लिंगों से निर्मित पंच शिव ब्रम्हा, दुर्गा, गणेश द्वारपाल आदि की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं।
कुछ अन्य मंदिर है जिन्हें बस्तर संभाग की सैर के दौरान आपको अवश्य देखना चाहिए।
भानेश्वरी मंदिर:
दंतेवाड़ा स्थित दन्तेश्वरी मंदिर के बगल में भानेश्वरी देवी का मंदिर है। लोकमान्यता में इसे दंतेश्वरी की छोटी बहन कहा जाता है। अतः इसे श्रद्धालु छोटी मांई कहते भी कहते हैं। कहा जाता है कि दन्तेश्वरी मंदिर के स्थापना के पूर्व इस स्थान पर लोकदेवी का मंदिर था। कुछ लोग इसे दन्तेश्वरी मांई के पहले स्थापित देवी मानते हैं। इस मंदिर में भी अनेक प्रतिमाओं का संकलन दिखाई देता है, जिनमें प्रमुख रुप से नरसिंह और लक्ष्मी की युगल प्रतिमा, मण्डप में भद्रकाली, महाकाली, गणेश और भैरव की प्रतिमाएं उल्लेखनीय हैं। मण्डप में ही भैरव चक्र की भी स्थापना की गई है। दन्तेश्वरी देवी के मंदिर में तथा भानेश्वरी मंदिरों की बनावट और प्रतिमाओं पर दक्षिण भारतीय शिल्पकला का प्रभाव देखा जा सकता है। इन मंदिरों में गणेश, शिव तथा शिव जी के प्रतिरुप के तौर में भैरव की प्रतिमाएं अन्य प्रतिमाओं की तुलना में अधिक परिलक्षित होता हैं। कहा जाता है कि भगवान शंकर द्रविड़ों के आराध्य देव हैं, यही कारण है कि कभी यहां दक्षिण भारत की संस्कृति का स्वर्ण काल रहा होगा। प्राचीन भारत, तंत्र साधना का केन्द्र रहा होगा ऐसा प्रतीत होता है।
दन्तेश्वरी मंदिर तथा भानेश्वरी मंदिर में, दोनों ही मंदिरों में अनेक प्रतिमाओं के साथ भैरव चक्र की स्थापना की गई है, जो तंत्र साधना का प्रतीक है। भैरवी चक्र साधना से साधकों का कल्याण होता है। इस साधना से प्रसन्न होकर भगवती देवी अपने साधकों को मनचाहा वरदान देती है। भैरवी के साढ़े तीन चक्र हैं, स्थिरता, स्वास्थ्य और कल्याण के लिये ये जीवन की प्रक्रिया के लिये मौलिक हैं। देवी की यह उर्जा संरचना रस दंड में निर्मित थी।
दन्तेवाड़ा मंदिर के पीछे संगम तट पर भैरव मंदिर स्थित है। कुछ प्रतिमाओं को मंदिर में स्थान मिल गया किन्तु कई प्रतिमाएं आज भी पेड़ों के नीचे पड़ी हुई हैं। श्रद्धालु इन्हें अलग अलग नामों से पूजते हैं। संगम पार पगडंडी के दोनों किनारों पर प्राचीन शिवलिंग जमीन में धंसा हुआ मिलता है। । कुसुम वृक्ष के नीचे अष्टभुजी दुर्गा की प्राचीन प्रतिमा, वटवृक्ष के नीचे विशाल नारी प्रतिमा, लोग इसे ग्वालिन माता के नाम से पुकारते हैं। संभवतः उमा-पार्वती का एक रूप हो। देख-रेख के अभाव में अनेक मूर्तियां चुरा ली गई हैं।
इसी तरह संगम तट के पीछे भौगोलिक क्षेत्रफल का ध्यान से अवलोकन करें तो आज भी नलवंश काल के चौड़े ईंटों के अवशेष दिखाई देते हैं। मंदिरों के अवशेष, दूसरी ओर विशाल मंदिर संकुल परिसर होने का आभास होता है। नल युगीन प्राचीन ईंटों के टुकड़े परिलक्षित होते हैं। झाड़ियों के बीच जल निकास के लिए पाषाण निर्मित नाली भी बिखरी हुई हैं। गजलक्ष्मी अंकित पाषाण संभवतः किसी देवालय का टूटा भाग हो, यूं ही पेड़ों के नीचे दिखाई दे जाता है। इस क्षेत्र की खुदाई और अध्ययन हो तो आज भी प्रचुर मात्रा में पुरावशेष मिलने की पूरी संभावना है।
छिन्दगांव का शिव मंदिर
इस मंदिर का निर्माण छिंदक नागवंशी राजाओं ने 12 वीं शताब्दी में कराया था। इन्द्रावती तट पर एक कम आबादी वाला छोटा सा गांव छिन्दगांव, बसा हुआ है जो जगवलपुर-लोहण्डीगुड़ा मार्ग के लगभग 20 वें किलोमीटर के ऊत्तर में लगभग 2.5 किलो मीटर दूर इंद्रावती नवी के दक्षिणी तट पर स्थित है। यहां की विशेषता यह है कि इंद्रावती नदी के तट पर एक नागयुगीन शिव मंदिर भग्नावस्था में है। वर्तमान में मंदिर का जगमोहन (मण्डप) पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। गर्भगृह की छत शेष है, किन्तु शिखर गिर चुका है। गर्भगृह की भित्ति के बाह्य स्तर पर लगे पाषाण खण्ड भी गिर चुके हैं। मंदिर की शैली व मूर्तिशिल्प के अवलोकन से यह ग्यारहवीं-बारहवीं शती ईस्वी का प्रतीत होता है। स्थानीय लोगों का तथा इतिहासकारों का मानना है कि छिन्दगांव का प्राचीन नाम 'छिन्दकग्राम' रहा होगा। इस मंदिर के परिसर में वर्तमान में ग्रामवासियों द्वारा निर्मित काली मंदिर तथा शीतला माता के मंदिर हैं। वर्तमान में इन्हीं मंदिरों में नागयुगीन शिव मंदिर की प्रतिमाएं रखी हुई है। मुख्य मंदिर (शिव मंदिर) में केवल जलहरी सहित शिवलिंग है।
परिसर के अन्तर्गत अन्य प्रमुख प्रतिमाएं निम्नानुसार हैं-
नरसिंह काली मंदिर में ही गर्भगृह की बाह्य भित्ति में उपर्युक्त नटराज प्रतिमा के दूसरी ओर काले प्रस्तर से निर्मित नरसिंह की प्रतिमा स्थित है। प्रतिमा के अवलोकन से चतुर्भुजी प्रतीत होती है। बायीं भुजाएं खण्डित हो चुकी हैं, दायीं भुजाएं सुरक्षित हैं। मुख्य बायीं भुजा की कलाई तक का भाग शेष है। मुख्य दायीं भुजा व मुख्य बाईं भुजा से नरसिंह को हिरण्यकश्यप का पेट चीरकर वध करते हुये प्रदर्शित किया गया है। अन्य दायीं भुजा वरद मुद्रा में है। नरसिंह का मुख नैसर्गिक सिंह के समान है, जिस पर किरीट नहीं है। दायां पैर खण्डित हो चुका है तथा बायाँ पैर घुटने पर टिका हुआ प्रदर्शित है, जो प्रतिमा से टूटकर अलग हो चुका है। प्रतिमा कला की दृष्टि से निम्नस्तर की है। प्रतिमा की ऊंचाई लगभग 3.5 फुट तथा चौड़ाई लगभग 2 फुट है।
नटराज - काली मंदिर में गर्भगृह की बाह्य भित्ति पर जगमोहन में काले प्रस्तर से निर्मित नटराज की प्रतिमा है। प्रतिमा षटभुजी है। कला की दृष्टि से प्रतिमा निम्न स्तर की है। प्रतिमा की ऊंचाई लगभग 2 फुट एवं चौड़ाई 1.5 फुट है। प्रतिमा की जंघा से नीचे का भाग खण्डित हो चुका है। नटराज शिव किरीट-कुण्डलधारी हैं। वर्तमान में तीन दायीं भुजाएँ तथा एक बायीं भुजा शेष है। मुख्य दायीं भुजाओं में डमरू तथा पाश हैं।
गणेश - उक्त काली मंदिर की बाह्य भित्ति से संलग्न गणेश की एक चतुर्भुजी एकदंती प्रतिमा रखी हुई है। यह बालुकाश्म से निर्मित है। प्रतिमा आसन मुद्रा में है। मुख्य दायीं भुजा वरमुद्रा में है, दूसरी दायीं भुजा में परशु है। मुख्य बायीं भुजा में मोदक तथा दूसरी बायीं भुजा में स्वदन्त हैं। शुण्ड मोदक को स्पर्श कर रहा है। आसन पीठिका पर मूषक प्रदर्शित किया गया है। प्रतिमा की ऊंचाई लगभग 2 फुट तथा चौड़ाई लगभग 1.5 फुट है।
चित्रकोट का प्राचीन शिवमंदिर
चित्रकोट का प्राचीन शिवमंदिर
इस मंदिर के बगल में वृक्षों की छांव में पगड़ी धारी प्रतिमा के दर्शन होते हैं तथा उसके समीप ही पाषाण से निर्मित बजनी हथौड़े भी देखे जा सकते हैं। संभवतः यह हथौड़ा उस दौर के मंदिरों तथा देवालयों के निर्माण के काम आते रहे हों। हथौड़े के संबंध में स्थानीय लोगों का कहना है कि हाथ के सबसे छोटे चीनी अंगुली में उठाकर जो व्यक्ति देवालय की एक परिक्रमा कर लेगा तथा भगवान से जो मन्नत मांगेगा, उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। आज भी लोगों को हथोड़ा उठाकर परिक्रमा करते देखा जा सकता है। समीप ही ध्वस्त देवालय के अवशेष दिखाई पड़ते हैं जो किसी देवालय होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इस ध्वस्त मंदिर में वास्तु के दर्शन होते हैं।
नारायणपाल का विष्णु मंदिर
इस मंदिर का निर्माण शक संवत् 1033 अर्थात् सन् 1111 ईस्वी मेंनाग नरेश जगदेक भूषण धारावर्ष की पटमहिषी एवं सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी द्वारा कराया गया था। आज की तारीख में इस मंदिर को देखने के लिए जगदलपुर से चित्रकोट मार्ग पर तीर्था सड़क पर नारायण पाल पहुंचा जा सकता है। ग्राम बोदरा से उत्तर-पश्चिम में नारंगी नदी द्वारा पृथक इंद्रावती, नारंगी तथा नानी बहार के त्रिवेणी संगम के तट पर ग्राम नारायणपाल स्थित है। नाग वंश के अभिलेख में नारायणपाल का नाम नारायणपुर के रूप में मिलता है। इंद्रावती की सहायक नदी का नाम नारंगी नारायणी है। नारायणपाल ग्राम स्थानीय बोलियों में नारंगपाल के नाम से जाना जाता है। नारायणपाल में 12 वीं शती ईस्वी का एक विष्णु मंदिर तथा कुछ तालाब अवस्थित हैं।
विष्णु मंदिर, नारायणपाल के गर्भगृह में एक विष्णु प्रतिमा स्थापित है, जो काले प्रस्तर के फलक पर उत्कीर्ण है। प्रतिमा (फलक) की ऊँचाई लगभग 60 सें०मी० तथा चौड़ाई लगभग 40 सें०मी० है। प्रतिमा के पीछे शेष नाग उत्कीर्ण है, जिसकी पूंछ विष्णु के बायीं ओर नीचे की ओर लम्बवत दर्शित है। विष्णु प्रतिमा स्थानक मुद्रा समभंग है। प्रतिमा के दोनों कोणों पर विद्याधर उत्कीर्ण हैं। विष्णु शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी हैं। प्रतिमा, प्रतिमा शास्त्रीय विधान के अनुसार उत्कीर्ण की गई है तथा कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मंदिर की विशालता एवं भव्यता तथा कालखण्ड (सोमेश्वर देव के राज्यकाल के अंतिम बिन्दु की समृद्धि के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि मंदिर के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमा, वर्तमान प्रतिमा नहीं थी, अपितु मूल (मुख्य) प्रतिमा के स्थान पर कालांन्तर में वर्तमान प्रतिमा रख दी गई है।
शिलालेख
नारायणपाल के विष्णु मंदिर में एक शिलालेख रखा हुआ है। यह संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है तथा वर्तमान में मंदिर के जगमोहन में रखा गया है। शिलालेख नागवंश के नरेश जगदेक भूषण धारावर्ष की पत्नी तथा सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी द्वारा नारायणपाल में विष्णु मंदिर का निर्माण किये जाने के अवसर पर सन् 1111 ई० में में उ उत्कीर्ण करवाया गया था। शिलालेख में उल्लेख किया गया है कि महारानी गुण्ड महादेवी द्वारा अपने स्वर्गीय पुत्र सोमेश्वर देव की स्मृतिस्वरूप नारायणपुर (वर्तनान ग्राम नारायणपाल अथवा नारंगपाल) में खर्जुरिबंध नामक तालाब के समीपस्थ भूखण्ड का दान मंदिर के प्रबंध निमित्त किया गया। शिलालेख में निचले भाग पर जलहरी सहित शिवलिंग, सूर्य, चन्द्र एवं गाय-बछड़े का रेखांकन है। नारायणपाल स्थित विष्णु मंदिर बस्तर क्षेत्र के मध्यकालीन मंदिर में अपनी वास्तुकला एवं विशालता के फलस्वरूप सर्वप्रमुख है। यह नागर शैली का मंदिर है और इसका निर्माण खजुराहो के मंदिरों की शैली में ऊंची जगती पर किया गया है। इस मंदिर के मुख्यतः दो भाग हैं ।
गढ़िया का शिवमंदिर
जगदलपुर से गढ़िया लगभग 35 किमी दूर है। यह जगदलपुर-चित्रकोट मार्ग पर दक्षिण की ओर एक मार्ग ग्राम लोहण्डीगुड़ा होकर गढ़िया की ओर जाता है। ग्राम गढ़िया में नानी बहार नामक नाले के पश्चिमी तट के पास मुख्य मार्ग पर एक नागयुगीन शिवमंदिर अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण नागवंश के प्रतापी राजा सोमेश्वर देव ने कराया था। मंदिर के समीप स्थित शिलालेख से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण शक संवत् 1019 अर्थात् 1097 बनाया गया है।
मंदिर में केवल गर्भगृह का निर्माण कराना गया था। मंदिर का शिखर लगभग सुरक्षित है, किन्तु आमलक एवं कलश ध्वस्त हो चुके हैं। गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग वर्तमान में इसी मंदिर के पूर्व-दक्षिण-पूर्व की ओर कुछ ही दूरी पर श्नानी बहारश् नाले के पूर्वी तट पर निकट अतीत में निर्मित अन्य मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है। शिल्प की दृष्टि से मंदिर साधारण कोटि का है। पेड़-पौधों के उग आने से मंदिर के शीघ्र क्षतिग्रस्त/ध्वस्त होने की आशंका है। मंदिर से संबंधित शिलालेख मौजूद हैं।
उक्त शिवमंदिर का शिवलिंग ऊपर उल्लेखित अन्य मंदिर में स्थापित है। शिवलिंग की ऊंचाई 7 इंच तथा जलहरी की ऊँचाई 10.5 इंच है। शिवलिंग व जलहरी सादगीपूर्ण है, किन्तु कलाकार का कौशल प्रशंसनीय है। शिविलिंग काले बालुकाश्म से एवं जलहरी ग्रेनाइट प्रस्तर से निर्मित है। ग्राम गढ़िया में उक्त नागयुगीन शिवमंदिर से लगभग 100 मीटर दूर मुख्य मार्ग पर ही एक मैदान में नाग नरेश सोमेश्वर देव का शिलालेख तेलुगु भाषा में उत्कीर्ण है। शिलालेख की तिथि शक संवत् 1019 (सन् 1097 ई०) है। शिलालेख में सोमेश्वर देव द्वारा मंदिर निर्माण पश्चात् भूमिदान एवं गद्याणक नामक ग्राम तथा स्वर्ण मुद्रा का दान किये जाने का उल्लेख है। देवदासियों के नृत्य आदि समारोह के अन्य कार्यक्रमों का उल्लेख भी इस शिलालेख में है। सोमेश्वर देव के काल-निर्धारण, उक्त शिवमंदिर के निर्माण एवं अन्य घटनाओं की जानकारी देने के कारण यह शिलालेख अत्यंत ऐतिहासिक महत्व का है।
बोदरा में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ
कुरूषपाल में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा
गढ़धनोराः भोंगापाल के प्राचीन मंदिरें
समलूर का ऐतिहासिक शिव मंदिर
ढोढरेपाल का शिवमंदिर
चिंगीतरई का शिवमंदिर
बस्तर ग्राम का शिवमंदिर
बारसूर का बत्तीसा मंदिर
बारसूर का शिव मंदिर मामा-भांजा के नाम पर
गणेश द्वय की प्रतिमा
सामन्ती सरदार चंद्रादित्य का शिव मंदिर
सोलह स्तम्भों वाला शिवमंदिर
पेदम्मा गुड़ी
नागफनी मंदिर
मावली मंदिर बारसूर
सुकमा का रामारामिन मंदिर
दन्तेवाड़ा का ढोलकल गणेश
2 प्राकृतिक जलप्रपात
2 बस्तर की गुफाए
उसूर गुफा
तुलार गुफा
4 बस्तर के अन्य पर्यटन स्थल
दुधावा बांध
बैलाडीला
चौराहों का शहर जगदलपुर
बस्तर एक खोज
12/10/2024
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