11 से 14 फरवरी तक बस्तर में अखिल भारतीय बहुभाषीय नाट्य स्पर्धा है। दूसरे शब्दों में यहां रंगकर्म उत्सव मनाया जाएगा। रंगकर्म से जुड़े तमाम लोगों ने प्रेसवर्ता कर ये जानकारी दी । ऐसे में मदन आचार्य का एक लेख मेरे हाथ लगा । जिसमें बस्तर के रंगकर्म के इतिहास की झलक देखने को मिलती है। जानकारियां दिलचस्प लगी, सोचा उन लोगों को अवष्य जानना चाहिए जो इस विधा की सेवा में बरसों से लगे हैं ।
थोड़ा बहुत मैने अपनी तरफ से कुछ और जानकारियां एकत्र की और आप तक पहुँचा रहा हूँ।
रियासत काल में पड़ी थी रंगकर्म की नींव
वर्तमान बस्तर संभाग के रंगकर्म की गतिविधियों ने लगभग एक शताब्दी का सफर तय कर लिया है। लेख में कहा गया है कि यहां की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं का प्रभाव यहाँ के रंगकर्म में भी पड़ा है।
पूर्व बस्तर रियासत के राजा रूद प्रतापदेव (महाराजा प्रवीदचन्द्र भेजदेव) के नाना द्वारा रियासत में राम मंडली को स्थापना की गई थी । संभवतः वहीं से रंगकर्म का यहाँ बीज बोया गया । यह रामलीला पार्टी पूर्णतः राज्याश्रित थी।
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इसके अध्यक्ष स्वयं राजा रूद्रप्रतापदेव तथा व्यवस्थापक स्व. पीताम्बरलाल विश्वकर्मा (सुविख्यात चित्रकार बंशीलाल विश्वकर्मा के पिता) थे जो उस समय बस्तर प्रिंटिंग प्रेस के मैनेजर भी थे ।
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बस्तर में पत्रकारिता का इतिहास
चूंकि उस समय व्यवस्थित तथा आधुनिक रंगमंच नहीं था। इसलिए रामलीला में उपयोग होने वाले पोशाक अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य उपकरण-राजकीय कोष से प्राप्त धन से ही इलाहाबाद, कानपुर आदि स्थानों से मंगाये गये थे। इन साजो-सामान को व्यवस्थित रखने हेतु बड़ी और मजबूत पेटियां बनायी गई थीं।
उसवक्त भी । लकड़ी की तलवारे, भाले, बरछियाँ , गढ़ाएं , फरसे, राजदण्ड आदि अस्त्र-शस्त्र इस तरह बनाये गए थे कि वे वास्तविक अस्त्र-शस्त्र लगते थे।
रामलीला में प्रयोग रंगीन परदे, पखवाई, टोपी, पगड़ी, नकली मुछें, दाढी, अंगरखा, हृदय आभूषण, मोर-मुकुट, कर्ण- भूषण, धोती-कुर्ता, धनुष, तरकश, जटाएँ, नकलीबाल, रावणा का इस सिरों वाला मुकुट आदि सामान की इलाहाबाद और कानपुर से मंगाये गये थे. उल्लेखनीय है कि इसकी देख-रेख की सारी जिम्मेदारी उस समय के प्रतिष्ठित नागरिक कलीमुल्ला और भूरेखाँ की थी. सामान लेने के लिए यही लोग स्वयं इलाहाबाद जाते थे। रामलीला के सभी पात्र योग्य शासकीय कर्मचारी और शहर के चुनिन्दे कलाकारों से ही चयचित होते थे। उस जमाने में स्त्री की भूमिका भी पुरुषों द्वारा किया जाता था।
ये थे बस्तर रंगमंच के पहले कलाकार
गजानन जेलर, झाड़ूराम सुनार, गदाधर महाती, उमाशंकर श्रीवास्तव, लक्ष्मीनारायण श्रीवास्तव, मुरलीधर विश्वकर्मा, गोकुल प्रसाद श्रीवास्तव आदि कलाकार विभिन्न भूमिकाओं में रंगमंच पर आते थे। गायन- वादन में बसंतलाल श्रीवास्तव, छोटेलाल जैन, गणेश प्रसाद, द्वरिका प्रसाद तथा पीताम्बर लाल विश्वकर्मा की अग्रणी भूमिका थी।
ये सभी कलाकार नाटक से सम्बंधित दोहे, चैपाई, और गायन सामूहिक रूप से करते थे। आचार्य लिखते हैं कि रामलीला में सीता स्वयंवर का दृश्य बहुत से रोचक तथा मनोहारी होता। सीता और राम के ब्याह के प्रसंग को भव्य बनाते हुए राम जी की बारात राजवाड़ा पहुंचाती, यहाँ रजिकीय तोप से सलामी दी जाती और राजा रूद्र प्रतापदेव स्वयं अपने दरबारियों के साथ पारम्परिक राजकीय वेश-भूषा में मौजूद रहते थे।
बारात मशाल को रोशनी मे निकाली जाती। जाहिर है बस्तर में उसवक्त बिजली की व्यवस्था नहीं थी। राजा रूद प्रताप देव के निधन के पश्चात रियासत कालीन रामलीला का आयोजन भी समाप्त हो गया।
फिर 1962 में रंगमंच जागा।
इसके काफी अंतराल में सन् 1962-63 में उस समय को युवापीढ़ी के द्वारा रंग मंच में नाटको के मंचन का प्रयास किया गया- पुराने दौर के कलाकार ही इस नाट्य मंचन में सक्रिय थे। सीतास्वयंवर परशुराम संवाद जैसे प्रसंगों का आकर्षक और भव्य मंचन होता। सुप्रसिद्ध कवि पूर्णचन्द्ररथ तब जगदलपुर में रहते थे। परशुराम के चरित्र का अभिनय उनके द्वारा जिस ओजस्विता से किया गया था, उसे आज भी लोग याद करते हैं। आगे चलकर सीरासार भवन में धार्मिक उत्सवों पर नाटकों का मंचन हुआ करता था।
ऐतिहासिक नाटक - पृथ्वीराज चैहान का मंचन हुआ था संतोष भा की मुख्यभूमिका में थे। संतोष भा वर्तमान रामकृष्ण आश्रम के स्वामी और महंत रह चुके हैं। कवि चंद्रवरदाई का रोल स्व० शम्भूनाथ ने निभाई थी।
इसके अतिरिक्त वीर अर्जुन कृष्ण-सुदामा, कट्टबोमन्ट(क्रांतिकारी) दानवीर कर्ण सहित नाटक शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, हरिश्चन्द्र - तारामती आदि का मंचन शहजादा साहब के कुशल मार्गदर्शन में किया गया था। इसी दौर में भैरमगंज मोहल्ले में सक्रिय संस्था प्रफुल्ल हास्य-नाटक समिति द्वारा भी कई छोट छोटे नाटक खेले गये, इस संस्था में कृष्णकुमार महापात्र, शशि शेखर रथ, जोगेन्द्र महापात्र, नीलमणिदास, भोला महापात्र, बालमुकुंद आदि रंगमंच के जाने-माने नाम थे।
प्रसिद्ध रंगकर्मी एम.ए रहीम के दौर में बस्तर में नाटकों की क्या स्तिथि थी ?
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