महाराजा रूद्रप्रताप से शुरू हुआ रंगकर्म का सफर कई पड़ावों से गुजरकर आधुनिक रंगकर्म की तरफ बढ़ रहा था।
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बस्तर रंगमंच का इतिहास
बस्तर में नाटक मंचन और अभिनय की बात मशहूर रंगकर्मी एम ए रहीम के जिक्र के बिना संभव नहीं है। आकर्षक व्यक्तित्व और बहुमुखी प्रतिभा के धनी एम ए रहीम शासकीय उपधि महाविद्यालय के छात्र थे ।
संवेदनांए अभिव्यक्ति होती थी रंगमंच के माध्यम से
इस समय इस शहर में अब हास्य-प्रधान, रहस्य-रोमांच, लघुनाटिका, प्रहसनो जैसे उथले- विषयों से उबरने का था। अब समझ आने लगा था कि नाटको का मकसद केवल मनोरंजन नहीं अपितु जीवन समाज विचार और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। इसी दौर में जयशंकर प्रसाद की ख्यातकृति कामायनी के दो प्रसँग श्रद्धा और इटा की नाट्य प्रस्तुति डाक्टर धनंजय वर्मा के निर्देशन में हुआ था । उज्जैन विश्वविद्यालय में उपकुलपति के पद- को सुशोभित करते हुए सेवानिवृत हुए । बीते शताब्दी के छटवे दशक में बस्तर में दण्डकारण्य परियोजना की स्थापना हुई। इस प्रोजेक्ट की स्थापना का मकसद पूर्वी बंगाल (तब पाकिस्तान) से भारत आये शरणार्थियों को बस्तर के कुछ क्षेत्रों मे बसाना था। पुर्नवास के लिए पहुंचे शरणार्थी बंगला भाषी थे तो परियोजना मे सरकारी कर्मचारी के रूप में बड़ी संख्या मे बंगला भाषा-भाषी लोग भी आये। परिणाम यह हुआ कि - शहर में बांग्ला संस्कृति की गतिविधियों का इजाफा हुआ। एम.ए.रहीम मषहूर पत्रकार रविदुबे भी इस प्रोजेक्ट में कुछ समय कार्यरत थे । बंगला भाषा का उन्हें ज्ञान भी है। इसलिए बंगलानाटको में शिरकत का मौका भी मिला। बंगला- भाषियों के बीच आधुनिक भाव-बोध से सम्पन्न बंगला नाटक- यथा कैम्प-3, एक प्याला काफी? डाउनट्रेन का मंचन हुआ। महान रूसी उपन्यासकार गोर्की, के उपन्यास माँ के नाट्य रूपांतरण का मंचन और बंगाल की लोकपरम्परा का नाट्यरूप कलकत्ता के रंगकर्मियों द्वारा धरमपुरा में खेला गया था। इन नाटको की प्रस्तुति में एमए रहीम और दिलीप रॉय की सक्रिय हिस्सेदारी थी।
सातवें दशक में शिल्पी सांस्कृतिक संस्था का गठन हुआ यह संस्था गायन, वादन और नृत्य के क्षेत्र में जनसामान्य में बहुत लोकप्रिय हुई और आज भी है। परन्तु इसने स्वतंत्र रूप से कोई नाटक नही किया। इसके समानांतर नाटक की गतिविधियां अलग से चलती रहीं, नाटक के इस ग्रुप मे एम. ए. रहीम के साथ प्रो०देवकुमार चक्रवर्ती। कल्पना चैधरी अर्थात् नसरीन मुद्रवी, हरीश अवस्थी,रईस मुद्रवी, मदन ठाकुर, मानस मुखर्जी, मनमोहन सिंह, सुरेश विष्णु, ज्ञान सागर मंडल, माया चक्रवर्ती की संयुक्त टीम स्वतः स्फूर्त रूप से नाटकों में सक्रिय हो कर - उपेन्द्रनाथ अश्क कृत नाटक परदा उठाओ, परदा गिराओ, कृष्णाचन्दर की कहानी पर आधारित नाटक दरवाजा खोल दो आदि का मंचन क्रिया
भारतीय रंगमंच की दृष्टि से छठा दशक अनेक कारणों से चर्चित है. इन वर्षों में रंग कलाओं कला की सहयोगी शाखाओं नाट्यलेखन, अभिनय, निर्देशन प्रकाश व्यवस्था, मंच परिकल्पना नें विशिष्ट प्रतिभाओं के माध्यम से नया रूप प्राप्त कर लिया था, इसी दौरान रंगकर्म-निर्देशक नामक संयोजक व्यक्तित्व का आविभार्व हुआ इसका प्रभाव सभी ओर था. जाहिरी तौर पर राष्ट्रीय रंगमंच के क्रिया कलापों का असर यहाँ के रंग कर्मियों पर होना था नाटकों के लिए एकजुट होने वाले इन्ही लोगों ने एम.ए. रहीम के नेतृत्व में
सर्जना का गठन
अक्टूबर 1984 में सर्जना नाट्य संस्था का गठन किया। इनके साथ खुर्शीद खान और जी. एस. मनमोहन रंगकर्मी जुड़े। सर्जना ने जगदलपुर के रंगमंच का इतिहास रच दिया । और इसकी फिजा ही बदल दी।
उस वक्त जाने माने कलाकार थे- के परेश, दिनेश मातुरकर, मृदुला भट्टाचार्य, गौतम कुण्डू, जी. श्याम, वसीम अख्तर, सुरेन्द्र प्रधान, श्रीमती रहीम, संजय त्रिवेदी, आलोक अवस्थी, रजतसेन गुप्ता, दानिश रहीम, जसवीर कौर, महुआकर्मकार, तापस घोषाल, श्रीनिवासराव मद्दी ।
सर्जना के बैनर से इतर भी मादा कैक्टस, बसंत ऋतु का नाटक शुतुरमुर्ग पंक्षी ऐसे आते हैं, का मंचन एम ए रहीम और प्रो. देवकुमार चक्रवर्ती के निर्देशन में किया गया. इनकी जुगलबंदी लेखन निर्देशन में ही साल अगस्त की शाम पिंजरा के अतिरिक्त बंगला नाटको का हिन्दी अनुदित नाटक कांचनरंगा रामश्याम यदु की सफल प्रस्तुतियाँ हुई ।
क्रमशः
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