बस्तरिया हस्तकला एवं संस्कृति
(बस्तर अंचल के लेखक नरेन्द्र पाढ़ी ने यह जानकारी दी है जो बस्तर की कला,संस्कृति को प्रर्दशित करती है। )
बस्तर में आदिवासी बहुल अंचल की आदिम संस्कृति, अद्वितीय है। यहां की कला कौशल तकनिकी, पारम्परिक है। बस्तर को जनजातीय समूहों का प्रमुख कला कहा जाता है। बस्तर विभिन्न अद्वितीय कला कृतियों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बस्तर की कला कृतियां जनजाति समूह की ग्रामीण जीवन शैली को दर्शाती है।
बस्तर जनजातीय कला की सुंदरता का प्रमुख कारण है कि सभी प्राकृतिक रूप से प्राप्त सामग्री से बनी होती है, जो विशेष कर बस्तर क्षेत्र में पाई जाती है। यहां के आदिवासी, गैर आदिवासी संस्कृति का मिलाजुला अद्वितीय आंचलिक कला प्रसिद्ध है। यहां की कला परम्परा में आदिवासी कलाओं का बहुत बड़ा बाजार देशी-विदेशी शहरों से जुड़ा है। बस्तर अंचल के हस्तशिल्प, चाहे वे आदिवासी, हस्तशिल्प हो या लोक शिल्प दुनिया भर के कला प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम है, इसका प्रमुख कारण है आदिवासी बहुत अंचल की आदिम संस्कृति ।
बस्तर का घढ़वा धातु शिल्प समुदाय यूं तो, घढ़वा जाति, समस्त बस्तर में फैले हुए हैं। बस्तर में धातु ढलाई द्वारा बनाए जाने वाले पारम्परिक बर्तन और गहनें, जैसे कुंडरी, भण्डवा, थारी, बटकी, कसला, पयली, बटका, चाटु, झारी आदि, आभूषणों में जो बस्तर के आदिवासी नृत्य के दौरान अक्सर पहनते हैं, खाडू, पाटा, बांहटा, खिलवा, सूता, रूपया माला, धान माला, हंसापाइ, खोटला पयडी, धारी पयड़ी, सुदिन पंयड़ी, बाजनी पंयडी आदि ।
इसी तरह देवी-देवताओं की पूजा में उपयोग आने वाली धातु, आरती, कलश, छत्र, सर्प, घोड़ा, नंदी बैल, मेंढक, शेर, मछली, तोड़ी, मोहरी, घंटा आदि। शुरूआत में घढ़वा धातु शिल्पी, जो आज अपने को घढ़वा शिल्पी कहते हैं, ये घुम्मकड़ समूह थे, जो गांव-गांव, घुमकर धातु ढलाई से, बर्तन, आभूषण देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते थे, नारायणपुर जिले के अन्तर्गत बेनूर ग्राम, कोण्डागांव क्षेत्र/अन्तर्गत, भेलवापदर पारा, बरकई, टेमरा, जगदलपुर अन्तर्गत, घढ़वा पारा करनपुर, सिड़मुर, ऐर्राकोट, भानपुरी क्षेत्र अन्तर्गत । अलवाही, घोटिया आदि क्षेत्रों में घढ़वा शिल्पकार निवासरत हैं।
काष्ठ कला की बात करें तो बस्तर काष्ठकला का सुंदर और अनूठा रूप है, जिसे बस्तर के आदिवासियों में महारथ हासिल है साथ ही यह कला इनकी आजिविका का साधन भी हैं। इनकी कला सम्पूर्ण भारत ही नहीं वरन विदेशों में भी शोभायमान हो रही है। काष्ठ कला को सजीव रूप देने के लिए, विशेषकर सागौन की लकड़ी का उपयोग करते हैं। शीशम एवं सिवना लकड़ी का भी उपयोग किया जाता है।
बस्तर के आदिवासी लकड़ी के काम में कुशल हैं, इन्हें दो समूहों में विभाजित कर सकते हैं, एक आदिवासी समूह कृषियंत्र बनाने में निपूर्ण है। जो कृषि कार्य में उपयोग में आने वाले सामग्री का निर्माण करते हैं। दूसरा समूह है जो सजावटी सामग्री बनाने में निपूर्ण हैं, जो लकड़ी में नक्काशी उकेरने में माहिर है। वे अपनी संस्कृति और धार्मिक आस्थाओं को शिल्पकला में व्यक्त करते हैं। जो देवी-देवताओं के समूह की संगीत, संस्कृति और वन्य जीवन के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है। काष्ठ शिल्प का कार्य हाथ से बने रूप में निर्भर करता हैं, मशीनरी का उपयोग नहीं किया जाता है, बस्तर के काष्ठ शिल्पकार, काष्ठ शिल्प में भारत ही नहीं वरन विदेशों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं, अपनी कला व संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे हैं। यह कला आदिवासी समुदाय के लिए आजिविका का साधन भी है।
बस्तर में आदिवासी कला में बांस का प्रमुख स्थान है बांस, आदिवासी एवं ग्रामीण जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। वास्तव में देखा जाय तो बांस के बिना आदिवासी ग्रामीण का जीवन अधुरा सा है। ग्रामीण जीवन में बांस की उपयोगिता इस बात से होती हैं कि वे अपने घरों के आसपास बांस के झुरमुट उगाते हैं बांस हस्तशिल्प परम्परागत है. वर्तमान में बांस और बेंत से कई तरह की सजावटी सामग्री तैयार की जाती है, बांस को लेकर कई किंवदंतिया भी है बुजुर्गों के कथनानुसार पूर्व में बांस की खपच्ची से नवजात शिशु का नाल काटा जाता था, विवाह संस्कार में भी, मण्डपाच्छादन के पहले बांस की मठ पूजा की जाती है। लोक मान्यता यह भी है कि विवाह के पूर्व बांस को पूजा करने से दम्पति को वांछित संतान की प्राप्ति होती है। प्रायः यह देखा गया है कि विवाह की समस्त रस्मों में बांस से बनी वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। लोक जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक बांस की उपयोगिता होती । ग्रामीण जन जीवन में बांस से बनी औजारों से शिकार करने की प्रथा है भी है। चिड़ियों के लिए बांस का फंदा बनाना, पिंजरा बनाना, चीक बनाना, मछली पकड़ने का जाली सोड़िया, केकड़ा रखने के लिए, ढूटी, सोने बिछाने के लिए- चटाई, सूपा-टोकना, गपा, झाडू, छतड़ी, टाकरा, चाप, डाली, ढोलगी, झाल के अतिरिक्त दैनिक जीवन में आने वाली उपयोगी वस्तुएं भी बनाई जाती है। यह एक स्वादिष्ट भोज्य भी है। बांस की नई कोपलों को काटकर सब्जी बनायी जाती है। जिसे बास्ता कहा जाता है। बस्तर की प्रसिद्ध गोंचा में तुपक, तुपकी, बांस की पोंगली से बनाई जाती है। जिसे तुपक के रूप में उपयोग किया जाता है।
लेकिन अब आधुनिकता चलते धीरे-धीरे बस्तर की कला विलुप्त होती जा रही है, मांग कम होने की वजह से बांस कला से जुड़े ग्रामीणों का आजिविका पर बुरा असर पड़ने लगा है। आधुनिक युग में बांस का चलन कम और फायबर, प्लास्टिक से बने सामग्रियों का चलन अधिक हो गया है। यह बांस शिल्प कलाकारों के लिए चिंता का विषय है।
बस्तर का ढोकरा आर्ट, जो विश्व प्रसिद्ध है, बस्तर के अधिकांश आदिवासी शिल्पकारों की रोजी-रोटी से जिविकापार्जन ढोकराकला पर निर्भर है, देश के बड़े-बड़े महानगरों में ढोकरा कला के शोरूम हैं, अधिकतर ढोकरा शिल्पकला बस्तर के आदिवासी संस्कृति की छाप होती है। देवी-देवताओं और पशु हाथी घोटे-हिरण, नंदी, गाय, मनुष्य की आकृति होती है इसके अतिरिक्त शेर, मछली, कछुआ, मोर आदि बनाये जाते हैं।
इस तरह बस्तर कला का नाम आदिवासी जिला बस्तर से लिया जाता है इस क्षेत्र में विभिन्न जनजाति निवासरत है प्रत्येक जनजाति के अपनी संस्कृति और जीवन जीने की तरीका अलग है। इनकी भाषा, बोली, पोषाक, रहन-सहन, रीति-रिवाज अलग है, साथ ही इनकी शिल्पकला भी गलग और अनोखी है। रोति-दिन