छत्तीसगढ़ी फिल्म का इतिहास
अब बात छालीवुड यानि छत्तीसगढ़ फिल्म (Chhattisgrh Film) उद्योग की । आज की तारीख में इस उद्योग से अनगिनत फिल्में रिलीज हो चुकी हैं। कुछ ने बड़ी कमाई भी की है। नागपुर के सिनेमा घरों में आज भी छत्तीगढ़ी फिल्में देखी जा सकती है।
मगर एक दौर ऐसा था जब छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लेकर सामाजिक विरोध के स्वर उठे थे। बातें दिलचस्प हैं और छत्तीसगढ़ी फिल्मों का इतिहास (History of Chhattisgarh Film)भी ...
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म (The First Film in Chhattisgarh)
अगर इतिहास पर गौर करें तो 1965 में मनुनायक ने एक फिल्म बनाई थी जिसका नाम था कहिं देबे संदेश।यह फिल्म एक भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाईबा से प्रेरित थी ।
फिल्म के कलाकारों में से कुछ बम्बई (आज मुंबई) के थे तो कुछ छत्तीसगढ़ से थे। फिल्म में संगीत मलय चक्रवर्ती ने दिया जो मुंबई निवासी थे और दुर्ग के रहने वाले हनुमंत नायडू ने गीत लिखे। फिल्म में गाए गानों पर मो. रफी मन्नाा डे, महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरषोत्तम जैसे नामी गायकों ने आवाज दी थी। फिल्म तो कुछ कमाल नहीं दिखा पाई मगर मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से आर्थिक सहायोग पाया (उस वक्त छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बना था)। उस समय इंदिरा गांधी सूचना और प्रसारण मंत्री थीं।
घरद्वार फिल्म
फिर लम्बे अंतराल के बाद 1971 में घरद्वार नामक छत्तीसगढ़ी फिल्म बनी । इस फिल्म का निर्माण विजयकुमार ने किया था।
ये फिल्म भी ज्यादा नहीं चली हांलाकि इस फिल्म में बिखरते परिवार की कहानी थी । कुछ हद तक महबूब खान की मदर इंडिया फिल्म से प्ररित थी। इसके बाद छत्तीसगढ़ी फिल्म में लम्बा गैप आ गया ।
27 अक्टूबर 2000 को, मोर छैन्हा भुइंया रिलीज़ हुई घर द्वार के बाद पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म। इस फिल्म ने छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माताओं में एक आस जगा दी। इस फिल्म को बड़ी सफलता मिली । इसके बाद कुछ ऐसी फिल्मों का जिक्र करना जरूरी है जो टर्निग पांइट के तौर पर हम समझ सकते है।
2005 में भाक्ला (2006)
2005 में भाक्ला (2006) के रिलीज़ हुई जिसमें लता मंगेश्कर ने पहली और आखिरी बार छत्तीसगढ़ी में गाना गाया है। गीत कल्याण सेन ने लिखे थे।
इसके तुरंत बाद महून दीवाना तहुन दीवानी (स्वप्निल फिल्म प्रोडक्शंस) तुरा रिक्शावाला, और लैला टिप टॉप छैला, अंगूठा छाप जैसी फिल्में रिलीज़ हुईं।
भूलन द भूलभुलैया
फिर भूलन द भूलभुलैया के साथ छत्तीसगढ़ी फिल्म ने नया इतिहास रचा और इसे 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में बेस्ट छत्तीसगढ़ी फिल्म बनी। इस तरह, यह फिल्म राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बन गई है। इस फिल्म को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंच पर काफी सराहना मिली । यह फिल्म संजीव बख्शी के उपन्यास भूलन कांदा पर आधारित है जिस पर पैर रखते ही इंसान रास्ता भूल जाता है, वह भटकने लगता है, इस दौरान कोई दूसरा इंसान जब आकर उस इंसान को छूता है तब जाकर फिर से वह होश में आता है।
इसी भूलन कांदा पर भूलन द मेज फिल्म बनी है । फिल्म के जरिये आज के सामाजिक, इंसानी, सरकारी व्यवस्था में आए भटकाव को दिखाया गया है। आदिवासी इसे मलेरिया के इलाज में भी प्रयोग करते हैं।
यूट्यूब और डिजीटल कैमरे आने से फिल्म और वृतचित्र निर्माण में एक क्रांति सी आ गई है। अब निर्माता स्थानीय बोलियों में फिल्म बनाने लगे हैं । बस्तर में प्रसाद फिल्म की मोचो मया एक चर्चित फिल्म है जो बस्तर में बनी है।