हसदेव विवाद क्या है हसदेव के अरण्य को बचाने के लिए छोटे बड़े आंदोलन होते रहें है यह आंदोलन आज से नहीं 2014 से होता आ रहा है । जानने की कोशिश करते हैं क्यों है इसमें इतनी उठापठक और क्यों है सरकारें चुप? इससे पहले हसदेव को समझना जरूरी है क्यों है चर्चा में छत्तीसगढ़ में करीब पांच हजार मिलिअन टन कोयला है। और यह पूरे देश को 18 प्रतिशत कोयला देता है।
यह 1, 70, 000 हजार वन क्षेत्र कोरबा दक्षिण सरगुजा और सूरजपुर जिले में शामिल है। वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट आफ के सर्वे के मुताबिक यह गोंड, लोहार और ओरांव जातियों के दस हजार लोग यहां रहते हैं।
तो मसला क्या है?
हसदेव ( Hasdeo) अरण्य क्षेत्र में कोयले की 23 खदानें पहले ही मौजूद हैं और सरकार उसका विस्तार करने जा रही है जिसके लिए अप्रेल में उसने एक प्रस्ताव पास किया । यह ध्यान देने वाली बात है कि 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे नो-गो जोन (No-Go Zone)की कैटगरी में डाल दिया था इसके बावजूद, कई mining-project को मंजूरी दी गई क्योंकि नो-गो नीति कभी पूरी तरह लागू नहीं हो सकी । यहां रहने वाले आदिवासियों का मानना है कि कोल आवंटन का विस्तार अवैध है। जिसे छत्तीसगढ़ सरकार करने जा रही है। इससे कई गांव और लाखों लोग प्रभावित होगें उनकी सामने उनकी रोजी-रोटी की समस्या आ सकती है क्योंकि वे वनों पर निर्भर है।
क्या है विवाद?
छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने 6 अप्रैल 2022 एक प्रस्ताव पास किया है जिसमें हसदेव क्षेत्र में आने वाले परसा कोल ब्लॉक परसा ईस्ट और केते बासन कोल ब्लॉक का विस्तार किया जाएगा। यानि यहां 167 वनस्पतियों वाले जंगलों को काटा जाएगा। और उन जगहों पर कोयले की खदानें बनाकर कोयला खोदा जाएगा ।
और इसी बात के कारण स्थानीय लोग और वहां रहने वाले आदिवासी इसी बात का विरोध कर रहें हैं । आदिवासियों को अपने घर और जमीन खो जाने का डर हैं वहीं, हजारों परिवार अपने विस्थापन को लेकर चिंतित हैं।
इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि इस कटाई 85 हजार पेड़ कोयले की भेंट चढ़ जाएगें। फिलहाल यहां मौजूदा कोयले के विस्तार को देख कर लगता है जैसे किसी सुंदर चेहरे पर कालिख पोत दी गई है। पर्यावरण विदों के मुताबिक इससे 2 लाख पेड़ों और इस पर निर्भर रहने वाले जीव जंतुओं का जीवन खतरे में पड़ सकता है।
आदिवासियों के मुताबिक, पंचायत एक्सटेंशन ऑन शेड्यूल्ड एरिया (पेसा) कानून 1996 के तहत बिना उनकी मर्जी के उनकी जमीन पर खनन नहीं किया जा सकता । पेसा कानून के मुताबिक, खनन के लिए पंचायतों की मंजूरी ज़रूरी है । आदिवासियों का आरोप है कि इस प्रोजेक्ट के लिए जो मंजूरी दिखाई जा रही है वह फर्जी है । आदिवासियों का कहना है कि कम से कम 700 लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया जाएगा और 840 हेक्टेयर घना जंगल नष्ट हो जाएगा ।
बेहद खास क्यों है हसदेव अरण्य
यहां हाथियों की अच्छी तादात है जो यहां के जगलों से अपना भरणपोषण कर रही है। साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के केवल 1 फीसदी हाथी ही छत्तीसगढ़ में हैं, अगर नई खदानों को मंजूरी मिलती है और जंगल कटते हैं तो हाथियों के रहने की जगह खत्म हो जाएगी और इंसानों पर हाथयों के हमले की घटना आम हो जाएगी। दूसरी तरफ यहां मौजूद वनस्पतियों और जीवों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। खदान के विस्तार के चलते लगभग आधा दर्जन गांव सीधे तौर पर और डेढ़ दर्जन गांव आंशिक तौर पर प्रभावित होंगे. लगभग 10 हजार आदिवासियों को डर है कि वे अपना घर गंवा देंगे. अपने घर बचाने के लिए आदिवासियों ने दिसंबर 2021 में पदयात्रा और विरोध प्रदर्शन भी किए थे, लेकिन सरकार नहीं मानी और अप्रैल में आवंटन को मंजूरी दे दी
सबसे अहम बिन्दु
जंगलों को काटे जाने से बचाने के लिए स्थानीय लोग, आदिवासी, पंयायत संगठन और पर्यावरण कार्यकर्ता एक साथ आ रहे हैं. स्थानीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन से लेकर अदालतों में कानूनी लड़ाई भी लड़ी जा रही है कि किसी तरह इस प्रोजेक्ट को रोका जाए और जंगलों को कटने से बचाया जा सके । राजस्थान के लिए हुआ है कोल ब्लॉक का आवंटन छत्तीसगढ़ और सूरजपुर जिले में परसा कोयला खदान का इलाका 1252.447 हेक्टेयर फैला हुआ है । इसमें से 841.538 हेक्टेयर इलाके में जंगल हैं । यह खदान राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित है। आगे चलकर राजस्थान की सरकार ने अडानी ग्रुप से करार करते हुए खदान का काम उसके हवाले कर दिया है। इसके अलावा, राजस्थान को ही केते बासन का इलाका भी खनन के लिए आवंटित है। इसके खिलाफ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस भी चल रहा है। अब छत्तीसगढ़ सरकार ने खदानों के विस्तार को मंजूरी दे दी है। पहले से ही काटे जा रहे जंगलों को बचाने में लगे लोगों के लिए यह विस्तार चिंता का सबब बन गया है। इसके लिए, स्थानीय लोग जमीन से लिए अदालत तक लड़ाइयां लड़ रहे हैं।