जगदलपुर बस्तर जिले का जिला मुख्यालय है यहां पर जिला कार्यालय के सामने चंदैय्या मेमोरिअल मेथोडिस्ट चर्च है । चर्च की डिजाईन से देखकर ही समझ आ जाता है कि यह एक ब्रिटिश कालीन चर्च है। ऊपर निर्माण की अवधि लिखी है जो 1933 की है। जाहिर है उस वक्त देश आजाद नहीं हुआ था। 1933 में बने इस भव्य एतिहासिक चर्च के बारे में हम जानते हैं । इसकी मजबूती और भवन निर्माण कारीगरी गजब की है। क्या कुछ किया गया इस चर्च निर्माण को लेकर? कौन थे इसे बनाने वाले ? किन हालातों में यह चर्च बना ? जानने के लिए पूरा पढ़िए!
मानप परोमा और नरसिंह
इसके इतिहास के बारे में मेथोेडिस्ट चर्च के उपाध्यक्ष डी नाथन ने बताया कि 1892 में मोनप्पा रोमा और नरसे दो तेलुगु युवा सिंरोचा के मिशनरी सीबी वाड यैलन्दु के देखरेख में बस्तर सिरोन्चा से आए और यहां मिशनरी कार्याे में लगे रहे, उन दिनों आज की तरह आवागमन के साधन नहीं थे लिहाजा वे बैलगाड़ी से इतना लम्बा सफर तय किया । । आज जो हेराल्ड चौपल है उसी जगह पर शिक्षा, स्वास्थ्य और ईष्वर की आराधना, एवं प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम हुआ करता था।
महाराजा रूद्रप्रताप के समय में अंग्रेज कमीशनर ने सोचा जब मिशनरी का काम अच्छा हो रहा है। क्यों न इन्हें बसने के लिए कुछ जमीन दी जाए । और रानी प्रफुल्ल देवी के कार्यकाल में उस वक्त खेती-किसानी के साथ-साथ शैक्षणिक गतिविधियों, डिस्पेंसरी और पोल्ट्री फार्म इत्यादि चलाने के लिए 1008 एकड़ जमीन दी गई जो । बाद में जमीन के कुछ हिस्से को चर्च ने सरकार को दे दिया जिसमें आज जिला सत्र न्यायालय और इंदिरा स्टेडियम बना है। और बाकि हिस्से में वर्कशॉप बनाया गया था ताकि लोग जीविकोपार्जन के लिए कुछ सीख सकें ।
ऐसे आया मेथोडिस्ट अस्तित्व में
बाद में 1910 में सोचा गया कि अराधना के लिए कोई स्थल बनाया जाना चाहिए ! यह मेथोडिस्ट चर्च की बुनियाद थी। डी नाथन बताते हैं एक मिशनरी थे कैम्बल सहाब इनकी इस सोच के बाद लोगों ने आपस में चंदा जमा करके उस वक्त लगभग 5000 रूपए जमा किये । और एक महिला समिति ने 30 रूपए दान दिए । इसके अलावा मिशनरियों ने, और उपदेशदेने वाले जिन्हें गुरू कहते हैं इन्होंने अपने एक महिने की तनख्वाह दान में दी ।
इन सभी ने दिन रात काम करके और पैसे जमा करके इस चर्च का निर्माण करना प्रारम्भ किया । आज जो मिशन बंगला है वहाँ 1931 में ही में बिजली आ चुकी थी । इस तरह 1931 में बस्तर ने पहली बार बिजली देखा।
मजबूती की मिसाल है
अब क्यों है इतना मजबूत इस बारे में जानकारी देते हुए नाथन बताते है कि उस जमाने में एक गोलाई नुमा नाले में चूना और रेत के घोल में गुड़ और बेल के फल मिलाकर रात भर पीसा जाता था । और 24 घंटे के लिए छोड़ दिया जाता था। इसी मिश्रण से इस चर्च का निर्माण हुआ है। शायद इसीलिए आज भी यह चर्च इतना मजबूत कि इसमें एक कील ठोकना भी कठिन काम है।
इसकी डिजाईन के पीछे हैं लेनहम सहाब
उस वक्त मिशनरी बनकर लेनहम सहाब बस्तर आए। उन्होंने इलाहाबाद लखनऊ से शिाशिर नाम के इंजीनियर को ये काम सौंपा। शिशिर अपने साथी प्रभुचरण के साथ यहाँ आए और इस चर्च की डिजाईन बनाई ।
चर्च के ऊपर की फ्रेम जो लोहे की बनी है पूरी छत इसी फ्रेम पर टिकी हैं । इसे कोलकत्ता (उस समय कलकत्ता) से मंगाया गया था। अहम बात यह है कि इसमें अभी तक कोई जंग नहीं लगी है। आज 90 साल हो चुके है। कहीं भी दीवारों में दरार तक नहीं है। ये उस वक्त की भवन निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूना ही था। जिसमें पूरी इमानदारी के साथ काम हुआ। वर्ना आज के भवनों में साल भर के भीतर ही कई दोष नजर आ जाता है।
5 नवम्बर 1933 को यह बनकर तैयार हो गया । इसके उद्घाटन में उस जमाने के बड़े-बड़े लोगों ने शिरकत की थी। इनमें स्टेट के अफसर, राजा महाराजा के अलावा बड़ी संख्या में आम जन शामिल हुए थे।
ऐसे पड़ा चंदैय्या नाम
चर्च निर्माण कार्य में लगे रेवरेन्ट गट्टू चंन्दैय्या की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई तो । चर्च बनने के बाद इसे चंदैय्या मेमोरियल चर्च कहा जाने लगा।
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