भारत में दीपावली का पर्व बड़े धूमधाम से मानाया जाता है। यह त्यौहार तरह-तरह की मिठाईयां, रंगोली, जगमगाते दीपों की रौशनी और आतिशबाजी के लिए खास तौर पर जाना जाता है।
लोग नए कपड़ों के साथ जमकर आतिशबाजी का आनंन्द उठाते हैं। ये तो सभी जानते हैं भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनाई जाती है । पुराणों में दीपावली के दिन आशिबाजियों का जिक्र नहीं मिलता है। मगर मिठाईयां, लक्ष्मीपूजन, दीपों की रौशनी का जिक्र जरूर है।
लोग नए कपड़ों के साथ जमकर आतिशबाजी का आनंन्द उठाते हैं। ये तो सभी जानते हैं भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनाई जाती है । पुराणों में दीपावली के दिन आशिबाजियों का जिक्र नहीं मिलता है। मगर मिठाईयां, लक्ष्मीपूजन, दीपों की रौशनी का जिक्र जरूर है।
दीपावली में आतिशबाजी करने का चलन ऐसे हुआ ।
इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं कि आतिशबाजी करना चीन से भारत आया । चीन में बारूद यानि गनपाउडर के माध्यम से फटाखे बनाए जाते थे और बुरी आत्माओं, विचारों और डर को दूर करने के लिए इसका उपयोग किया जाता था। और भारत में पटाखें फोड़ने की परंपरा को बौद्ध धर्म गुरू दीपांकर ने 12 सदी के आसपास लाया ।
बीबीसी के मुताबिक 7वी और 8 सदी में चीन ने पहली बार पटाखों की शुरूआत की। और भारत में 13 वीं और 14 सदी में व्यापार के जरिए यहाँ आया । बाद में गन पाउडर तुर्की पहुँचा और तोप के गोले बनाने में इसका इस्तेमाल किया गया ।
1526 में पानीपत की पहली लड़ाई बाबर ने इसी गोले के जरिए की थी। और जीत हासिल किया था। फिर भारत में मुगल सम्राज्य की नींव पड़ी।
बाद में लोगों को यह समझ आया कि यह केवल आवाज करता है हानि नहीं जिससे जानवर अपना आपा खो बैठते हैं । धीरे धीरे जश्नों में छोटे बड़े पटाखे बनाए जाने लगे और उस वक्त आम आदमी आतिशबाजी नहीं करता था केवल राजा-महाराजा ही आतिशबाजी किया करते थे क्योंकि ये काफी मँहगे हुआ करते थे
अंग्रेजों के समय
फिर अंग्रेजों के समय में 18 वीं और 19 सदी में भारतीय फैक्ट्रीयों में पटाखे बनने लगे । क्योंकि खुशियां मनाने में पटाखों छोड़ने का चलन हो चला था।
भारत में खुशियां मनाने के लिए घी के दिए जलाने और दीयों से रौशन करने का जिक्र मिलता है। मगर आतिशबाजी करने का उल्लेख नहीं ।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भारत में लोग पहले आतिशबाजी से परिचित नहीं थे । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे पाउडर के बारे में बताया गया है जो ज्वलनशील था तथा आग से लपटें पैदा करता था। अगर इसे एक नलिनुमा किसी चीज़ पर भर दिया जाए तो पटाखा बन जाता था।
बहरहाल, यह प्रचलन में पटाखे तभी आए जब 18 सदी में यह फैक्ट्रियों में बनने लगा और राजमहलों में खुशियों के दौरान किए जाने वाला आतिशबाजी धीरे-धीरे आम लोगों के त्यौहारों पर घर कर गया । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि खुशियां मनाने के लिए पटाखों का चलन विदेशी परंपरा है । भारतीय तो कतई नहीं ।
आज यह अपने चरम पर पहुँच गया है और बारूद से खुशी मनाने वाले तत्व ने जब लोगों के जीवन में जहर घोल दिया अब यह कैंसर, अस्थमा जैसे रोग पैदा करने लगा है।
बहरहाल, वैज्ञानिकों ने इसका तोड़ निकाल लिया है उसे ग्रीन पटाखा कहा जाता है
बहरहाल, वैज्ञानिकों ने इसका तोड़ निकाल लिया है उसे ग्रीन पटाखा कहा जाता है
क्या है ग्रीन पटाखा
यह आकार में छोटे होते हैं इसे बनाने में रॉ मेटेरिअल का कम ही इस्तेमाल होता है। इनमें पार्टिकुलेट मेटर का कम ही इस्तेमाल होता है ताकि धमाके बाद कम प्रदूषण फैले । ग्रीन पटाखे फुटने पर 20प्रतिशत पार्टिकुलेट मैटर निकलता है और 10 प्रतिशत गैस निकलती है पटाखों में बने क्यू आर कोड को नीरी नाम के एप से स्कैन करके से पहचाना जा सकता है।