बस्तर जिला अपनी खास संस्कृति और रीति रिवाज के लिए विश्व में विख्यात है। यहाँ साल भर तीज त्योहार मनाए जाते हैं। जिले में दो प्रमुख जनजातिय त्यौहार होते हैं जिसका इंतेजार साल भर लोग करते हैं । वे त्यौहार हैं दशहारा और गोंचा ।
दशहरा के विषय में मै बताऊँ तो यह देश भर में मनाए जाने वाले दशहरे से अलग है । क्या अलग है जानने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक कीजिए।
दशहरे में कई प्रकार रिवाज निभाए जाते हैं । इस त्यौहार में देवी दंतेश्वरी के अलावा एक और देवी की पूजा अर्चना की जाती है जिसे मावली देवी कहते हैं । शहर के सिरहासार सार के ठीक सामने मावली देवी की मंदिर बनी हुई है । जानते इस मंदिर के इतिहास और मावली देवी के बारे में
हांलाकि बस्तर में बाली जाने वाली हल्बी और भतरी बोली में दन्तेश्वरी और मावली (Mauli )देवी दोनों को एक माना गया है। राजमहल परिसर में मौजूद दन्तेश्वरी मंदिर के दाहिने भाग में मावली माता का मंदिर Mauli Temple है जो भानेश्वरी या भुवनेश्वरी देवी के नाम से भी जानी जातीं हैं।
मावली देवी के बारे में:-
मावली नामकरण संस्कृत के ‘मौली’ शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ मूल या प्रमुख है। आपको याद होगा बस्तर दशहरे में मावली परघाव नामक रस्म को काफी अहमियत दी जाती है इतिहास पर गौर करें तो देवी मावली कर्नाटक के माल्वल्य गाँव की कुल देवी थी ।
मवाली मंदिर (Mauli Temple Jagdalpur )के बारे में:-
राजमहल से कुछ ही दूरी पर मावली देवी का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण राजमहल परिसर में स्थित दन्तेश्वरी मंदिर तथा जगन्नाथ मंदिर के बाद महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी के
कार्यकाल में हुआ है। इस मंदिर के गर्भगृह में मावली देवी की तीन प्रतिमाएं हैं जो स्वर्ण से निर्मित हैं। मावली मंदिर के परिसर में पाटदेव, काली कंकालिन, कलंकी मंदिर के छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।
रीतिरिवाजों के तहत बकायदा नारायणपुर में मावली देवी से ही, समस्त कार्यों का श्रीगणेश होता है। वर्ष के प्रारंभ में मावली की पूजा धूमधाम से की जाती है, जिसमें नारायणपुर के समस्त आदिवासी जनता अपने-अपने परगना स्तरीय देवी-देवताओं के साथ सम्मिलित होती है। यह पर्व मावली देवी के सम्मान में आयोजित होता है और ऐसी मान्यता है कि देवी-देवता मावली के प्रति अपनी आदर-भक्ति प्रस्तुत करते हैं। इस अवसर पर एक मेले का आयोजन भी होता है जिसे मावली मेला कहते हैं ।
बस्तर में कहाँ -कहाँ है मावली मंदिर
जगदलपुर के अलावा मावली देवी के मंदिर दन्तेवाड़ा, नारायणपुर, नवागाँव, कौड़ावण्ड, छोटेदेवड़ा, मधोता सिवनी आदि जगहों पर स्थापित हैं।
इतना ही नहीं बस्तर अंचल में मावली के नाम से कई गांव भी बसे हैं - मावली भाटा, मावली पदर, मावली गुड़ा आदि। इस तरह से मावली मंदिर का इतिहास काफी दिलचस्प है।
जगन्नाथ मंदिर
इस मंदिर की स्थापना 1890 ई में हुई ।
इसके पूर्व वर्तमान जगन्नाथ मंदिर के समीप (जिस स्थान पर आज तिवारी बिल्डिंग है) घासपूस से निर्मित मंदिर का निर्माण करके पूजा-अर्चना की जाती थी। वर्तमान मंदिर के परिसर में भगवान जगन्नाथ के 13 वेश व अवतारों के प्रतिमाओं को भी दर्शनार्थ प्रदर्शित किया गया है जो काफी आकर्षक एवं दर्शनीय है। ये सभी प्रतिमाएं पुरातात्वि महत्व के हैं ।
1408 ई में पुरूषोत्तम देव को रथपति की उपाधि मिली थी। राजा पुरूषोत्तमदेव को लहुरी रथपति की उपाधि से विभूषित किया गया। ‘लहुरी रथपति’ की उपाधि के साथ सोलह चक्कों का विशालकाय रथ निर्माण की भी अनुमति भगवान जगन्नाथ से मिली । आषाढ़ शुक्ल द्धितीया से बस्तर अंचल में गुण्डिचा पर्व (गोंचा)की रथयात्रा मनाई जाती है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा तथा बलभद्र जी के प्रतिमाओं को रथारूढ़ करके रथयात्रा मनाई जाती है। राजा पुरूषोत्तम देव को जगन्नाथपुरी से वरदान स्वरूप मिले सोलह चक्कों के रथ का विभाजन करते हुए चार चक्कों के रथ को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दिया और क्रमशः चार और आठ चक्कों के रथ को दशहरा पर्व मनाने का निश्चय किया।
600 वर्ष से भी अधिक वर्षों से प्रारंभ हुई रथयात्रा की परम्परा आज भी निर्बाध रूप से जारी है। इस रथयात्रा में बस्तर अंचल के ग्रामीणों के साथ-साथ राजपरिवार भी सम्मिलित होता है। इस रथयात्रा में लकड़ी के तीन विशालकाय रथों में भगवान जगन्नाथ,बलभद्र तथा देवी सुभद्रा माता के प्रतिमओं को विराजित किया जाता है।
जगदलपुर में ‘गोंचा पर्व’ में तुपकी चलाने की एक अलग ही परंपरा दृष्टिगोचर होती है, जो कि गोंचा का मुख्य आकर्षण है। तुपकी चलाने की परंपरा बस्तर को छोड़कर पूरे भारत में अन्यत्र कहीं भी नही होती। दीवाली के पटाके की तरह तुपकी की गोलियों से सारा शहर गंूज उठता है। यह बंदूक रूपी तुपकी पोले बांस की नली से बनायी जाती है, जिसे ग्रामीण अंचल के आदिवासी तैयार करते हैं। इस तुपकी को तैयार करने के लिए, ग्रामीण गोंचा पर्व के पहले ही जुट जाते हैं तथा तरह-तरह की तुपकियों का निर्माण अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर करते हैं। इन तुपकियों में आधुनिकता भी समाहित होती है। ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्ची, छिंद के पत्ते, कागज, रंग-बिरंगी पन्नियों के साथ तुपकियों में लकड़ी का इस्तेमाल करते हुए उसे बंदूक का रूप देते हैं।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया से भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रारंभ हो जाती है, जिसे यहां श्रीगोंचा कहा जाता है। भगवान के 22 विग्रहों को पूजा-अर्चना कर, तीन रथों में सुसज्जित करके स्थानीय जगन्नाथ मंदिर से गोल बाजार मार्ग से परिक्रमा करते हुए तीनों रथों को सिरहासार लाया जाता है, जहां भगवान को 9 दिनों तक अस्थाई रूप से विराजित किया जाता है। मान्यता के अनुसार भगवान जगत भ्रमण करते हुए अपने मौसी के यहां जनकपुरी पहुंचते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया से लेकर आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसमी तक प्रतिदिन सीरासार में जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा देवी के समक्ष श्रद्धालुओं के द्वारा भजन-कीर्तन, रामायण पाठ, सत्य नारायण की कथा, प्रसाद वितरण व अन्य सांस्कारिक कार्य अनवरत चलता रहता है। अंचल के आरण्यक ब्राह्मणों के अलावा सभी धर्म संप्रदाय के लोग भगवान के दर्शन व पूजा-पाठ हेतु यहां पहुंचते हैं।
साभारः विरासत जगलदपुर की से
( जिला प्रशासन द्वारा प्रकाशित पुस्तक)