रथ परिक्रमा के बाद अर्द्ध रात्रि में परम्परा के अनुसार किलेपाल परगना के माड़िया आदिवासियों के समूह के द्वारा रथ चुराने की परम्परा का पालन किया जाता है। यह परम्परा जिस स्थान पर होती है उसे कुम्हड़ा कोट कहते हैं। चुराने के दौरान इस रथ में देवी का छत्र नहीं होता है।
दूसरा छत्र जो दन्तेवाड़ा स्थित दन्तेश्वरी मांई जी का छत्र होता है, उसे पुजारी लेकर कुम्हड़ाकोट पहुंचते हैं।
कुम्हड़ाकोट
बस्तर दशहरा में यह एक चर्चित स्थान है जो रायपुर मार्ग पर लालबाग के पास स्थित है। जगदलपुर से इसकी दूरी करीब 2 किमी होगी। एक समय में कभी यह घने जंगल का एक हिस्सा हुआ करता था। इस क्षेत्र में कभी जंगली जानवर विचरण करते थे। इस जंगल में बहुत अधिक कुम्हड़ा के फल और बेल मौजूद थे, इसलिए इसे कुम्हड़ाकोट कहा गया। स्थानीय लोक-भाषा में कुम्हड़ा को ही कुमडा कहा जाता है।
वर्तमान में यहां साल के बड़े-बड़े पुराने वृक्ष हैं।
नयाखानी!
बस्तर दशहरा के संदर्भ में अगर कहें तो कुम्हड़ाकोट के इसी जंगल में एक परम्परानुसार रथ की चोरी की जाती है। फिर दूसरे दिन राजा रथ को ढूंढते हुए कुम्हड़ाकोट पहुंचते हैं और प्रजा के साथ नए धान से बने भोजन खाने के बाद विजय रथ पर सवार होकर जगदलपुर लौटते हैं। चूंकि नए धान से बने अन्न का भोजन ग्रहण किया जाता है अतः इसे नवाखानी रस्म कहते हैं ।
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इस रस्म को बाहर रैनी तथा राजा नवाखाई भी कहा जाता है। शहर से कुम्हड़ाकोट और कुम्हड़ाकोट से राजमहल तक समाप्त होने वाली बाहर रैनी की रथयात्रा सबसे लंबी रथयात्रा होती है। रथ खींचने वालों की माने तो लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तय करने में कई चौक-चौराहों को पार करना होता है। इस तरह तीन किलोमीटर की यात्रा तय करने में लगभग चार से आठ घंटे लग जाते हैं।
रियासत काल से ही रथ जिसे विजय रथ की संज्ञा दी गई है, उसे खींचने का एकाधिकार किलेपाल-कोड़ेनार के 40 गांवों के माड़िया जनजाति के ग्रामीणों का होता है।
एक तरह से यह स्थल देवी-देवताओं का राज्य स्तरीय सम्मेलन स्थल सा प्रतीत होता है। कुम्हड़ाकोट में बस्तर अंचल, परगना तथा अन्य राज्यों से आमंत्रित देवी-देवताओं का आगमन सुबह से प्रारंभ हो जाता है। देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्ह, लाठ, बैरक, आंगा, डोली, पालकी, कुर्सी, चंवर, लाठी के साथ सेवादारों की भीड़ उमड़ पडती है। बाजे-गाजे, शहनाई तथा अन्य पारम्परिक वाद्यों के साथ कुम्हड़ाकोट स्थल पर देवी-देवताओं का खेलना लोंगो के लिए आकर्षण उत्पन्न करता है। आंगा तथा पाटदेव के भागते-दौड़ते सेवाकारी, कहीं तीर-धनुष लिए भागता-दौड़ता धनुकांडेया, लाठ लेकर दौड़ता सेवादार ऐसे देवी-देवताओं के दृश्य उपस्थित होते हैं। इस स्थल पर लगभग तीन हजार से भी अधिक देवी-देवता जुटते हैं। इन सभी देवी-देवताओं के प्रतीकों को एक जगह पर स्थापित करके सम्मान दिया जाता है तथा मांई जी के साथ-साथ सभी देवी-देवताओं की भी पूजा-आराधना के बाद नए अन्न से बने भोग-प्रसाद अर्पित किए जाते हैं।
रानी माचा अर्थात रानी का मंच
रियासतकाल में विजय रथ पर रथारूढ़ राजा को निहारने रानी, हाथी में सवार होकर कुम्हड़ाकोट के जंगल में पहुंचती थी, जहां पूर्व से तैयार की हुई ‘रानी माचा’ अर्थात मचान में विराजमान होती थी। दशहरा पर्व में होने वाले विभिन्न रस्मों को मचान पर बैठकर देखती थी। मचान बनाने की प्रथा आज भी यथावत है। हां, इस मचान पर आज कोई नहीं बैठता। इस रानीमाचा का निर्माण आज भी करनपुर के भतरा जनजाति के लोग करते आ रहे हैं। ग्रामीणों का मानना है कि सेवा करने की जिम्मेदारी रियासत काल से उन्हें सौंपी गई है और उन लोगों पर दन्तेश्वरी मांई की कृपा बनी रहती है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष वे अपने खर्च पर शहर पहंुचकर परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं।
राजा नवाखाई:
बस्तर के जनजीवन में नया फसल ग्रहण करने के पूर्व, प्रकृति और देवी-देवताओं का कृतज्ञता जाहिर करने, पूजा-अर्चना करने की एक परम्परा है। इसे नवाखाई या नुआखानी कहते हैं। फसल जब पक जाता है तो सबसे पहले अपने इष्ट देवी-देवताओं को समर्पित करते हैं और उसके बाद ही ग्रहण करते हैं। जनजातीय परम्परा में सिर्फ अन्न ही नहीं बल्कि आम, विभिन्न प्रकार के कंद, गन्ना, सब्जी या कोई भी फसल हो, उन्हे पहले ईष्ट देवी-देवता को समर्पित करते हैं। उसके बाद ही ग्रहण करते हैं। संभवतः इसके पीछे प्रकृति प्रदत्त सम्पदा को उपयोग के पूर्व, देवी-देवताओं को अर्पित कर कृतज्ञता जाहिर करना और प्रकृति से मानव को जो नैसर्गिक उपहार प्राप्त होते हैं, उन्हें समय से पूर्व उपयोग नहीं करना अर्थात् परिपक्व होने के बाद ही ग्रहण करना, केन्द्र में होता है। यह पर्व आदिवासी और बस्तर में बसने वाले अन्य जातियों के द्वारा अलग-अलग समय पर मनाया जाता है। कुछ लोग फसल के पक जाने के बाद ही अन्न के नया खाने का पर्व मना लेते हैं और कुछ ग्रामीणों तथा बस्तीदारों का नया खानी, बाहर रैनी के दिन राजा के साथ नया अन्न खाने के पर्व के साथ होता है।
साभारः विरासत जगदलपुर की