सिरहासार के ठीक सामने दो मंदिर बने हैं। एक है मावली मंदिर और दूसरा जगन्नाथ मंदिर । दशहरे के दौरान यह मंदिर प्रमुख आकर्षण का केन्द्र होता है। जिसमें दशहरे के दौरान कई अनुष्ठान कराए जाते है। मावली मंदिर के बारे में जानने के लिए क्लिक कीजिए ।
जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 1890 को हुआ । आज जहाँ जगन्नाथ मंदिर है वह वर्तमान तिवारी बिल्डंग की जगह पर था। इस मंदिर में राजा नियमित रूप से भगवान के दर्शन करने आते थे।
कुछ समय पश्चात् उस मंदिर में आग लग जाने के कारण, भगवान की मूर्तियां नष्ट हुई। मंदिर भी पूरी तरह नष्ट हो गया। इस घटना के बाद राजा ने समीप ही जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया तथा पुनः ब्राह्मणों ने विग्रह का निर्माण करके मंदिर में विधिवत स्थापना की। भव्य मंदिर के निर्माण की बात सारे बस्तर अंचल में फैली। राजपरिवार की अनुमति से अंचल में अलग-अलग समय में आए ब्राह्मण परिवार के सदस्यों ने अपने-अपने प्रतिमाओं को मंदिर में स्थापित किया, जिसके लिए राजपरिवार ने अलग-अलग खंडों का निर्माण भी करवाया तथा स्वतंत्र रूप से पूजा-पाठ को सुचारू रूप से गति देने के लिए प्रत्येक खंड के लिए राज्य के राजाओं के द्वारा विभिन्न मंदिरों को भेंट स्वरूप गांव प्रदान किया था। इन ग्रामों से वसूल किये गये लगान से मंदिर की व्यवस्था की जाती थी। अलग-अलग गावों में ब्राह्मणों के द्वारा स्थापित विग्रहों की पूजा और कालान्तर में एक ही मंदिर में स्थापित करने के पीछे भी ब्राह्मणों की सामाजिक एकजुटता परिलक्षित होती है। छह खडों के अलावा सातवें खंड का भी निर्माण करवाया गया जिसमें भगवान विष्णु के रामावतार के रूप में भगवान श्रीराम की मूर्ति स्थापित की गयी। इस तरह एक ही मंदिर के छह खंडों में भगवान के 22 विग्रहों के दर्शन और पूजा के लाभ के साथ-साथ सातवें खंड में श्रीराम जी की पूजा करने का लाभ आज भी श्रद्धालु प्राप्त कर रहे हैं। मंदिर के परिसर में भगवान जगन्नाथ के 13 वेश व अवतारों के प्रतिमाओं को भी दर्शनार्थ प्रदर्शित किया गया है जो काफी आकर्षक एवं दर्शनीय है।
1408 ई. में चौथे शासक राजा पुरूषोत्तम देव के जगन्नाथपुरी रथ यात्रा के दौरान जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह चक्कों का रथ राजा को प्रदान करने का आदेश प्रमुख पुजारी को दिया था ताकि इसी रथ पर चढ़कर बस्तर नरेश और उनके वंशज दशहरा पर्व मनायें, साथ ही ‘रथपति’ की उपाधि देने का निर्देश दिया था। राजा पुरूषोत्तमदेव को लहुरी रथपति की उपाधि से विभूषित किया गया। ‘लहुरी रथपति’ की उपाधि के साथ सोलह चक्कों का विशालकाय रथ प्रदान किये जाने के पश्चात तत्कालीन राजा के द्वारा सर्वप्रथम दशहरा पर्व मनाया गया जो भगवान श्रीराम जी के द्वारा रावण वध की प्रचलित परिपाटी से परे विजयादशमी पर्व के रूप में मनाया जाता है, बस्तर में रावण वध की परम्परा नहीं है।
आषाढ़ शुक्ल द्धितीया से बस्तर अंचल में गुण्डिचा पर्व की रथयात्रा मनाई जाती है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा तथा बलभद्र जी के प्रतिमाओं को रथारूढ़ करके रथयात्रा मनाई जाती है। राजा पुरूषोत्तम देव को जगन्नाथपुरी से वरदान स्वरूप मिले सोलह चक्कों के रथ का विभाजन करते हुए चार
चक्कों के रथ को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दिया और क्रमशः चार और आठ चक्कों के रथ को दशहरा पर्व मनाने का निश्चय किया। 600 वर्ष से भी अधिक वर्षों से प्रारंभ हुई रथयात्रा की परम्परा आज भी निर्बाध रूप से जारी है। इस रथयात्रा में बस्तर अंचल के ग्रामीणों के साथ-साथ राजपरिवार भी सम्मिलित होता है। इस रथयात्रा में लकड़ी के तीन विशालकाय रथों में भगवान जगन्नाथ,बलभद्र तथा देवी सुभद्रा माता के प्रतिमओं को विराजित किया जाता है।
जगदलपुर में गोंचा पर्व तुपकी चलाने की एक अलग ही परंपरा दृष्टिगोचर होती है, जो कि गोंचा का मुख्य आकर्षण है। तुपकी चलाने की परंपरा बस्तर को छोड़कर पूरे भारत में अन्यत्र कहीं भी नही होती। दीवाली के पटाके की तरह तुपकी की गोलियों से सारा शहर गूंज उठता है। यह बंदूक रूपी तुपकी पोले बांस की नली से बनायी जाती है, जिसे ग्रामीण अंचल के आदिवासी तैयार करते हैं। इस तुपकी को तैयार करने के लिए, ग्रामीण गोंचा पर्व के पहले ही जुट जाते हैं तथा तरह-तरह की तुपकियों का निर्माण अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर करते हैं। इन तुपकियों में आधुनिकता भी समाहित होती है। ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्ची, छिंद के पत्ते, कागज, रंग-बिरंगी पन्नियों के साथ तुपकियों में लकड़ी का इस्तेमाल करते हुए उसे बंदूक का रूप देते हैं।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया से भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रारंभ हो जाती है, जिसे यहां श्रीगोंचा कहा जाता है। भगवान के 22 विग्रहों को पूजा-अर्चना कर, तीन रथों में सुसज्जित करके स्थानीय जगन्नाथ मंदिर से गोल बाजार मार्ग से परिक्रमा करते हुए तीनों रथों को सिरहासार लाया जाता है, जहां भगवान को 9 दिनों तक अस्थाई रूप से विराजित किया जाता है। मान्यता के अनुसार भगवान जगत भ्रमण करते हुए अपने मौसी के यहां जनकपुरी पहुंचते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया से लेकर आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसमी तक प्रतिदिन सीरासार में जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा देवी के समक्ष श्रद्धालुओं के द्वारा भजन-कीर्तन, रामायण पाठ, सत्य नारायण की कथा, प्रसाद वितरण व अन्य सांस्कारिक कार्य अनवरत चलता रहता है। अंचल के आरण्यक ब्राह्मणों के अलावा सभी धर्म संप्रदाय के लोग भगवान के दर्शन व पूजा-पाठ हेतु यहां पहुंचते हैं।