निशा गुढ़ी और जिया डेरा के बाद दशहरा से जुड़ी एक महत्वपूर्ण भवन है सिरहासार भवन । सिरहासार भवन का नाम सभी जानते हैं ।बस्तर दशहरा का एक प्रमुख रस्म जोगी बिठाई राजमहल से कुछ ही
दूरी पर सिरहासार नामक इसी विशाल भवन पर होती है। इसे रियासतकाल में श्रृंगारसार के नाम से जाना जाता था। आगे चलकर दशहरा के दौरान जागी बिठाई की रस्म यहाँ होने लगी तो इसे सिरहासार के नाम से पहचाना जाने लगा। एक चौराहे पर स्थित होने के कारण चौक को सिरहासार चौक को जाना जाता है। इस भवन के ठीक सामने मावली देवी का मंदिर तथा जगन्नाथ मंदिर स्थित हैं। सबसे खास बात इसमें यह कि जोगी बिठाई की रस्म लम्बे समय से होती आ रही है। जानते हैं जोगी बिठाई क्या है और किस प्रकार यह होता है।
जोगी बिठाई
दशहरा निर्विघ्न रूप से चल सके ऐसी प्रार्थना करते हुए एक व्यक्ति जिसे जोगी कहते है पूरे नौ दिनों तक निराआहार इसी भवन के अंदर बने एक गड्डे में बैठता है। इसे ही जोगी बिठाई कहते हैं जिला प्रशासन की किताब विरासत जगदलपुर की में दी गई जानकारी के मुताबिक जोगी (योगी) आश्विन शुक्लपक्ष में दशहरे पर यह काम करता है। इसके पीछे पूरी मान्यताओं पर गौर करते हैं तो दिलचस्प किस्सा मिलता है। एक मान्यता के अनुसार कभी दशहरा के अवसर पर एक हल्बा आदिवासी दशहरा निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना को लेकर अपने सुविधा के अनुसार योग साधना में लगातार 9 दिनों राजमहल के समीप बैठ गया था।
कुछ समय के बाद वह योगी आकर्षण का केन्द्र बन गया। उस योगी को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे और लोगों ने फूल और पैसों का चढ़ावा चढ़ा कर ढेर कर दिया। राजा को जब इस बात का पता चला तो स्वयं भी इस योगी को देखने पहुँचे। 9 दिनों के बाद दशहरा पर्व सम्पन्न होने के बाद राजा ने उस योगी को बहुत सारा पैसा, उपहार और अन्न देकर विदा किया। तब से जोगी बिठाने की परम्परा कायम हुई जिसे जोगी भी कहा जाता है।
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आगे चलकर जोगी को बिठाने के लिए सिरहासार के मध्य भाग का चुनाव किया गया, जहाँ एक गढ्ढे में हल्बा जाति का एक व्यक्ति लगातार 9 दिनों तक योगासन की मुद्रा में बैठा रहता है, इस बीच जोगी फलाहार तथा दूध का सेवन करता है।
आश्विन शुक्लपक्ष प्रथमा तिथि को ग्राम बड़े आमाबाल के हल्बा जनजाति परिवार का एक व्यक्ति स्थानीय मावली मंदिर, कंकालिन मंदिर, कलंकी मंदिर तथा जगन्नाथ मंदिर परिसर में स्थित राम मंदिर में जाकर देवताओं का दर्शन करता है। दन्तेश्वरी मंदिर का प्रमुख पुजारी इन मंदिरों में दीप प्रज्वलित करते हुए उन मंदिरों में पूर्व से स्थापित खांडा की पूजा करता है। मावली देवी के खांडा की पूजा-अर्चना के बाद खांडा जोगी को दिया जाता है, जिसे लेकर जोगी बाजे-गाजे के साथ एक जुलूस की शक्ल में स्थानीय सिरहासार पहुँचता है।
कुछ ऐसा होता है रस्म के दौरान
इस दौरान परम्परा के अनुसार जोगी को सफेद कपड़ा परदा करके लाया जाता है जहाँ गढ्ढे में बैठने के पूर्व जोगी की आरती उतारी जाती है। यह आरती हल्बा जनजाति की महिलाएँ उतारती हैं तथा बाद में उसे 9 दिनों के लिए गढ्ढे में प्रवेश कराया जाता है। जोगी के बैठने के स्थान पर एक खूंटा गाड़ा जाता है जिसे ‘अकक्ष खूंटा’ कहा जाता है। प्रवेश के बाद ही मावली देवी के खांडा की स्थापना करके खांडा के ऊपर ही 9 दिनों के लिए अखण्ड ज्योति जलाई जाती है। आने-जाने तथा दर्शन करने वाले व्यक्तियों को जोगी अपने हाथों से ही प्रसाद वितरण करता है।
रियासत काल में इस प्रकार होती थी जोगी बिठाई की रस्म
रियासतकालीन जोगी बिठाई रस्म और भी कठिन होती थी। गड्ढे में तीन लकड़ी के तख्तों पर इस तरह कील ठोंक दिया जाता था कि जोगी के बैठने के बाद वह हिल-डुल भी नहीं पाता था। जोगी बिठाई में हल्बा जाति का कोई भी व्यक्ति जोगी बनेगा यह तय किया जा चुका था , जिसका निर्वहन आज तक किया जा रहा है। मगर इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि एक परिवार का एक ही व्यक्ति दो बार से अधिक लगातार जोगी नहीं बन सकता । अतः उसके ही परिवार का दूसरा व्यक्ति दूसरे वर्ष जोगी के रूप में बैठता है। इसके पीछे कारण यह है कि जोगी बिठाई रस्म के पूर्व भी कई दिनों तक उसे परहेज करना होता है। बैठने के दिन ही धन-धान्य, वस्त्र और उपहारों से लाद दिया जाता था ।
मुरिया दरबार
मुरिया दरबार का शुरूआत 8 मार्च 1876 को हुई थी। इस मुरिया दरबार में सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मेकजार्ज ने राजा और उनके अधिकारियों को संबोधित किया था। बस्तर में बसने वाले जाति और जनजातीय परिवारों यथा - हल्बा, भतरा, धुरवा, गदबा, दोरला, गोंड, मुरिया, राजा मुरिया, घोटुल मुरिया, झोरिया मुरिया आदि अन्यान जाति के पहचान के लिए पूर्व में मुरिया शब्द ही प्रयोग में लाया जाता था। 1931 के बाद से जातीय और जनजातीय परिवारों की गणना पृथक से करने के बाद इन्हें उनके जातिगत शब्दों से उल्लेख किया गया। मुरिया दरबार, आदिवासी शब्द के अर्थ में आज भी प्रचलित में है।
क्या होता था इस दरबार में ?
मुरिया दरबार में ग्रामीण और शहरी जनप्रतिनिधियों के बीच आवश्यक विषयों को लेकर चर्चा होती है। रियासत काल में जनता और राजा के मध्य वर्ष में एक बार दरबार के माध्यम से विभिन्न मुद्दों को लेकर विचार-विमर्श हुआ करता था। समस्याओं का समाधान भी त्वरित हुआ करता था। रियासत के मांझी, मुखिया, कोटवार, चालकी, नाईक, पाईक आदि जनप्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्रों की समस्या दरबार में प्रस्तुत करते थे। समस्याओं पर चर्चा की जाती थी। किसी तरह की कठिनाई आने पर उसका हल निकाला जाता था। यह शिकायत अपने क्षेत्र के अलावा राज्य के कर्मचारियों की भी होती थी। कहना होगा कि मुरिया दरबार रियासत काल में एकतंत्रीय न्याय प्रणाली के रूप में स्थापित थी जो रियासत की जनता को स्वीकार्य होती थी।
मुरिया का अर्थ
मुरिया सम्भवतः हिन्दी के मूल से मिलकर बना है। मुर का अर्थ, हल्बी में प्रारंभ या मूल होता है, अर्थात् इस अंचल में प्राचीन समय से बसे हुए आदिवासी परिवारों के लिए मुर शब्द का ही उपयोग किया जाता था। मुरिया अर्थात् मूल निवासी। रियासत काल में आदिवासी संबोधन प्रचलित नही था। मुरिया अर्थात् मूलिया मूल षब्द का का विशेषण ही है। इसी मूलिया शब्द के अतिशय प्रयोग से मुरिया बनाया दिया गया।