1. काछिन गुढ़ी
पुस्तक के मुताबिक इस गुढ़ी यानि भवन का निर्माण 1772 ई. आसपास राजा दलपत देव ने करवाया था । 2005 में शासन ने इसका जीर्णोद्धार किया । बस्तर दशहरे के शुरूआत 1410 के बाद शुरू हुई थी मगर जब जगदलपुर राजधानी बनी उसके बाद ही काछिन गादी की रस्म को बस्तर दशहरे में शामिल किया गया ।
कारण था कि जगतु गुढ़ा के नाम से जाना जाने वाला जगदलपुर उस वक्त एक कबीला था जिसका सरदार जगतु था। उसने तत्कालीन चालुल्य महाराजा दलपत देव से मिलकर अपने कबीले को जंगली-जानवर के आतंक से मुक्त करने का निवेदन किया । राजा ने जगतु का निवेदन स्वीकार किया और जगतुगुढ़ा आए और यह जगह उन्हें इतना पंसद आया कि इसे अपनी राजधानी बना लिया । और जगतुगुढ़ा की ईष्टदेवी काछिन देवी के आर्शिवाद से प्रतिवर्ष दशहरे की शुरूआत होने लगी।
ऐसे होता था काछिन गादी रस्म
रियासत काल में काछिन देवी को रण-देवी के रूप में पूजा जाता था । जब उस दौर में काछिन गादी की रस्म दशहरे में निभाई जाती थी तो उसका रूप ही अलग था। महाराजा पर्व मनाने की अनुमति लेने एक वीर योद्धा के वेश में कछिन गुढ़ी जाया करते थे। महाराजा ढाल, तलवार के साथ हाथी पर विराजमान होकर महल से निकलते थे। उनके साथ आगे-पीछे पाटदेव, विभिन्न देवी-देवताओं के सिराहा, लाठ, बैरक, डोली, आंगा आदि होते थे। यह दल एक जुलुस की शक्ल में काछिन गुड़ी पहुंचता था। मुण्डा वादकों के साथ-साथ रियासत के सभी अधिकारी, गणमान्य नागरिक साथ होते थे। काछिनगुड़ी के सामने हाथी पर सवार राजा के सामने मंदिर से काछिन देवी कन्या पर आरूढ़ होकर दशहरा पर्व मनाने की अनुमति देती थी। बेल काटों की झूले की सात बार परिक्रमा करने के बाद देवी, भैरव भक्त सिरहा के आदेशों का पालन करती थी। भैरव भक्त सिरहा के हाथों से मोटा डंडा लेकर राजा के सवार हाथी की ओर लपकती थी। इस तरह भागते-दौड़ते युद्ध का एक मनोरम दृश्य वहां बनता था। कुछ देर बाद काछिन देवी बेल के कांटो से बनी झुले पर झूलने लगती थी। राजा हाथी से उतर कर उनकी सेवा करता था तथा देवी को मनाने के बाद पर्व निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना लिए हुए पर्व मनाने की अनुमति लेता था। इस प्रकार काछिन गुड़ी से काछिन देवी का प्रसाद भी राजपरिवार तथा बस्तीदारों के लिए विशेष रूप से भिजवाया जाता था।
2. खमेश्वरी गुड़ी निशा जात्रा स्थलः
अनुपमा थियेटर के समीप निशा-जात्रा गुड़ी स्थित है। कुछ लोग इसे खमेश्वरी गुड़ी भी कहते हैं, क्योंकि इस मंदिर में खमेश्वरी देवी का वास माना जाता है। मंदिर के बीच में तिरछी एक खंडित मूर्ति आज भी स्थापित है। खमेश्वरी अर्थात स्तम्भेश्वरी, बस्तर में स्तम्भ को खमा कहा जाता है।इसलिए इस गुड़ी को खमेश्वरी गुड़ी भी कहा जाता है। खास बात यह है कि यह मंदिर साल में एक बार ही खुलता है।
रियासतकाल में बस्तर के महाराजा ब्रम्ह मुहूर्त से लेकर दस बजे तक ब्राम्हणों के साथ बैठकर पूजा पाठ किया करते थे और यह पूजापाठ पूरे दिनों तक चलता था। अष्टमी की रात्रि को निशा जात्रा पूजा एवं बलि देने की रात्रि होती है। निशा जात्रा के लिए जब पालकी में महाराजा की सवारी एवं सिरहा, पुजारी, अनुचरों आदि का समूह राजमहल से निशा-जात्रा पूजा स्थल तक आता था तो आगे-आगे बाजा-मोहरी, देव पाड़ की गंभीर ध्वनि मीलों दूर तक रहस्यमय दहशत फैला देती थी।
रहस्यमयी निशा जात्रा:
11 कांवड़ यानि 22 मटकियां
यह एक भोग प्रसाद है जिसे 22 मटकियों में रखा जाता है और इसे बाघनपाल के राजपुरोहित परिवार के सदस्य ही तैयार करते हैं इसे दंतेश्वरी मंदिर से लेकर निशा जात्रा गुढ़ी तक कांवड़ से पहुँचाया जाता है। भोग प्रसाद को मावली मंदिर के भोगसार में बनाया जाता है
बाघनपाल के हरिनाथ राजपुरोहित के अनुसार भोग प्रसाद के अन्तर्गत चावल, दाल तथा खीर तैयार की जाती है। भोगसार में पूजा-आराधना के बाद ही सिंगनपुर, बड़ेआरापुर, धरमाउर, नैनमुर, उड़वा, राजूर और रायकोट के राउत समाज के लोगों की सहायता से भोजन तैयार करते हैं।
बलि के रूप हैं अलग-अलग
परम्परा के अनुसार निशा-जात्रा मंदिर के अलावा माता मंदिर में दो, राज महल के सिंहड्योढ़ी में दो, काली मंदिर में एक बकरे की बलि दी जाती है। इसी क्रम में दन्तेश्वरी मंदिर में एक काले कबूतर और मोंगरी मछलियों की बलि तथा राम मंदिर में उड़द दाल और रखिया कुम्हड़ा की बलि दी जाती है। राम मंदिर परिसर में ही भगवान जगन्नाथ मंदिर होने के कारण यहां सात्विक और प्रतीकात्मक बलि के रूप में कुम्हड़ा बलि देने की प्रथा है। इस बलि को देखने भक्तगण अनेक मंदिरों में पहुंचते हैं।
स्थानीय देवी-देवताओं को उनके मंदिरों में ही पूजन-अनुष्ठान के पश्चात बलि दिए जाने का विधान है किन्तु दशहरा पर्व में समस्त आंचलिक देवी-देवता जो इस पर्व में सम्मिलित होते है, उनके सम्मान में बलि दिए जाने की व्यवस्था निशा जात्रा मण्डप में की जाती है। रियासत काल में कलश स्थापना के दिन से ही बलि दिए जाने की प्रथा थी। रियासतकाल में जिस क्रम में देवी-देवता शहर में प्रवेश करते, उसी क्रम में देवी-देवता मावली मंदिर में अपनी उपस्थिति देते थे। आंगा, लाठ, पालकी, डोली, डंगई, छत्र और सैकड़ों सिरहा अपने दैवीय पारम्परिक वेश-भूषा में मोहरी, बाजा-गाजा के साथ झूमते पाठदेव, दन्तेश्वरी मंदिर तथा काली-कंकालिन मंदिरों में अपनी उपस्थिति देते थे, उसके पश्चात निशा-जात्रा मण्डप में बलि प्राप्त करने के पश्चात भीतर रैनी तथा बाहर रैनी रथ परिक्रमा में सम्मिलित होते थे।
इसके अलावा दशहरें के दौरान विभिन्न रस्में इन जगहों पर भी निभाई हैं , विस्तृत में जानने के लिए लाल रंग पर लिखे लिंक पर क्लिक कीजिए :-
मावली मंदिर
साभार:- विरासत जगदलपुर की