जब मनोरंजन के साधन नहीं थे तो इंसान अपना मनोरंजन करने के लिए पशु पक्षियों का सहारा लिया करता था। फिर जैसे परिवर्तन आता गया मनोरंजन के साधनों में भी परिवर्तन आता गया । और पुराने मनोरंजन के साधन बदलते गए। मगर आज भी कुछ ऐसे मानोरंजन के साधन है जो अनादि काल से चले आ रहें है।
जैसे केरल का नौका दौड़, स्पेन की बुल फाईट, कुश्ति इनमें से प्रमुख हैं इसी प्रकार बस्तर एक और मनोरंजन के साधन है जिसे मैने अपने बस्तर जिले में देखा वह मुर्गा लड़ाई यह भी अनादि काल से चला आ रहा है।
मुर्गालड़ाई का उल्लेख ऋगवेद में भी मिलता है यह बात आश्चर्य जनक जरूर लगे मगर यह सत्य है । बस्तर की बात मै कहूँ तो मुर्गालड़ाई का लोग इंतेजार करते हैं एक निष्चित दिन शहर से बाहर एक निष्चित जगह पर मुर्गा लड़ाई की जाती है। यह एक प्रकार का खेल है जो पूरे बस्तर संभाग में आयोजित किया जाता है।
कांकेर जिले से लेकर बीजापुर, कोंटा तक लोगों में इसके प्रति बड़ा उत्साह नजर आता है। यह खेल बस्तर वासियों कि सदियों से चली आ रही परम्परा में से एक है। गांव के बाहर हाट- बाजारों में मुर्गा गाली यानि अखाडा़ बनाया जाता है। और इस अखाडे़ में लडाई का दिन प्रायः बाजार का दिन तय किया जाता है ताकि आस - पास के 5 से 10 गांव के लोग देखने को आ सकें। तथा अपने प्रिय मुर्गे के उपर मन चाहा दांव लगा सके।
किस प्रकार होती है इसकी तैयारी
लडाकू मुर्गा तैयार करने के लिए मुर्गो को विशेष तरह से प्रशिक्षित किया जाता है इसके लिए एक तंदरूस्त मुर्गा का चयन किया जाता है उसके अंदर का डर मिटाने के लिए भीड़ - भाड़ जैसे इलाकों में रखा जाता है। कुछ लोग मुर्गो को खुंखार करने के लिए सुबह के वक्त उसे ठंडे पानी नहलाते हैं ।
बकायदा टेंनिग के बाद उसे अखाडा (जिसे मुर्गा गाली कहते हैं )में उतारा जाता है मुर्गो को रंग या कलर के अनुसार उसका नाम रखा जाता है
अगर मुर्गा लाल रंग का हो तो चोखा,
काला हो तो कालिया
और सफेद हो तो पारसी,
चितकबरा हो तो तेंदु पारस, लाखा जैसे तमाम नाम दिये जाते है।
मुर्गा लडाई का मैदान यानि गाली कैसा होता है ?
इंसानों की लड़ाई के मैदान को अखाड़ा कहने का चलन है। मगर मुर्गों की लड़ाई के मैदान को गाली कहते हैं । यह एक तार या बांस से गोलाकार में बनाई जाती है। इसी मैदान के अंदर लडाकू मुर्गो को लडा़या जाता है सर्किल में दो तरह के लोग मौजूद रहते हैं पहले में मुर्गे दूसरे में वे लोग रहते हैं जो टिकट लेकर मुर्गो पर दांव लगाते हैं फिर दर्षक होते हैं जो बाहर से ही दांव लगा कर इस खेल का आनंद लेते है। मै बताना चाहता हूॅ कि दांव लगाने के लिए कई तरह नियम या रूल भी होतें है। इसमें लोग 100 रूपये से लेकर 50000 रूपये तक के दांव लगाते हैं। तथा शहर के सपन्न या धनाड्य परिवार भी इसमें दांव लगाने में पीछे नहीं हैं मुर्गा लडाई को देखने के लिए 100 रूपए की इंटरी फीस या यू कहें टिकट भी लिया जाता है।
धारधार छुरे लगे होते हैं मुर्गे के पैरों पर ।
मुर्गे के पैरों पर एक तेज चाकू बांधाकर रखा जाता है जिसे काती कहते हैं । यह धार दार ब्लेड के तरह होता है जिसे के मुर्गे के दायें पैर में बांधा जाता है यह काती सामान्यतः घोड़े की नाल से बनाई जाती है। इसे एक विषेष तरीके से बांधा जाता है। इसमें खास दक्षता की जरूरत होती है।
मुर्गा लडाई के नियम -
इसमें दो अंजान मुर्गो पहले ट्रायल के रूप बाहर लडाया जाता है उसके बाद उन्हें गाली या मैदान में उतारा जाता है। जो मुर्गा ज्यादा हमला कर दूसरे मुर्गे को परास्त करता है या उसे घायल करता है वह मुर्गा विजयी होता है कई बार इस लडाई में मुर्गे की जान भी चली जाती है और कई बार मुर्गा मैदान ही छोड़कर भाग जाता है।
मुर्गा लडाई में मान सम्मान तथा परम्परा का भी विशेष ध्यान दिया जाता है हारे वाले मुर्गे का कलगी या पंख को तोड़कर जीते हूये मुर्गे के मालिक का सम्मान किया जाता हैं ताकि आपसी भाई चारा बने रहे।
आमतौर पर लडाकू मुर्गा तैयार करने के लिए स्थानीय मुर्गे चयन किया जाता है। लड़ाने वाला मालिक अपने परिवार से ज्यादा इसका ध्यान रखता है । इस लडाकू मुर्गे की कीमत बहुत ज्यादा होती है और मुर्गा इतना तंदरूरूत होता है कि कई बार लडते वक्त घायल होने पर भी वह मैदान नहीं छोडता या हार नहीं मानता है।
साभार: तीरछी नजर
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