दंतेवाड़ा जिला एतिहासिक साक्ष्यों का भंडार है कामता प्रसाद वर्मा की किताब बस्तर की स्थापत्य कला और लाला जगदलपुरी की बस्तर इतिहास एवं संस्कृति ऐसी कृतियां हैं
जो बस्तर जिले के बारे में बड़ी जानकारी देती है। पिछले दिनों इन कृतियों के पन्ने उलटते हुए मैने दंतेवाड़ा जिले में स्थित मंदिर और इसके इतिहास के बारे में काफी जानकारी हासिल की । जानते हैं क्या हैं वे ?
गरूढ़ स्तम्भ
दंतेश्वरी मंदिर के अंदर प्रवेश करने के पहले एक स्तम्भ दिखाए देगा। इसे बारसूर से लाकर स्थापित किया गया था। यह 1 हजार साल पुराना स्तम्भ है। मंदिर के दूसरे कक्ष में विष्णु की प्रतिमा है और दंतेष्वरी के मंदिर के गर्भ गृह में दंतेश्वरी देवी ऊपर भगवान नरसिंह की भी प्रतिमा है।
इसीलिए यहाँ गरूढ़ स्तम्भ स्थापित करना जरूरी हो गया था। क्योंकि भगवान विष्णु के मंदिरों के सामने गरूढ़ स्तम्भ बनाए जाने की परम्परा है।
मंदिर के अंदर
मंदिर के भीतर गर्भ गृह को मिलाकर चार कक्ष बने हैं । पहला प्रांगण है दूसरे में देवीदेवतओं की मूर्तियां है तीसरा कक्ष गर्भ गृह के ठीक पहले है। और अंत में है गृभ गृह । दंतेवाड़ा मंदिर में अंदर जाने पर आपको तीन शिलालेख मिलेंगे और अलग अलग देवी देवताओं की 56 पत्थर की मूर्तियां भी मिलेंगी। एतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है ये मूतियां 800 साल पुरानी हैं ।
इस शिलालेखों को पढ़ने से ये जानकारियां निकल का आती हैं
दंतेवला में वारंगल के पाण्डव कुल के राजा ने किस प्रकार दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण कराया ।
1703 में दिकपाल देव ने दंतेश्वरी मंदिर में बलि मसारोह आयोजित किया था। ये आयोजन नवरंगपुर को जीतने के खुशी में आयोजित कराया गया था।
उडिसा के राजपंडित ने लिखवाए गए शिलालेख में उल्लेख है कि बलि के आयोजन के चलते शंकनी डंकनी नदी का प्रवाह 5 दिनों तक लाल हो गया था।
मै मंदिर की ही बात कह रहा हूँ। आठवीं सदी में निर्मित पाण्डू राजाओं की वंश का प्रतीक गजलक्ष्मी की प्रतिमा देखने को मिलती है । हांलाकि यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता है कि प्रतीमा पाण्डू राजाओं की वंशका प्रतीक है ।
पत्रकार हेमंत कश्यप की किताब दंतेश्वरी शक्तिपीठ में लिखा गया है कि दंतेश्वरी गुड़ी की तरह भुवनेश्वरी गुड़ी में भी एक अपठित शिलालेख है । और इसी प्रकार का एक शिलालेख बारसूर के मामा-भांजा मंदिर में भी है जो संभवतः 10 वीं सदी का है।दंतेश्वरी गुड़ी के इतिहास पर गौर करें तो इसे पहली राजा अनन्मदेव ने पहली बार इसका जीणोद्धार कराया फिर दूसरी बार महारानी प्रफुल्लदेवी और प्रफुल्लचंद भंजदेव के आग्रह पर 1932-33 में ब्रिटिश प्रशासक डीआर रत्नम आईसीएस और मुंशी उमाशंकर एसडीओ के निर्देशन में किया गया ।
इस गुड़ी में
तीन शिलालेख हैं
जयविजय की 6 मूर्तियां हैं
शिवलिंग है
भगवान विष्णु की प्रतिमा है
और भगवान गणेश की मूर्तियां भी हैं
फिलहाल इसे पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम के तहत राष्ट्रीय महत्व का दर्जा दिया गया है।
भुनेश्वरी गुड़ी/ मावली गुड़ी
नवरात्र में पहले यहां मनोकामना
पूरी करने के लिए ज्योति कलश जलाए जाते थे। इसे मावली माता भी कहते हैं। मावली माता के बारे में जानने के लिए मेरे ब्लॉग बस्तर दशहरा जरूर पढ़िए
इस मंदिर के अंदर 9 ग्रहों की आकृतियां बनी है। और भगवान नरसिंह देव और गणेश की मूर्तियां है। यहां भैरवी की तीन मूतियों के अलावा दक्षिणमुखी शिवलिंग, गणेश तथा अन्य देवती देवतओं की 12 से अधिक मूतियां है।
माता की बगिया ।
मंदिर के पीछे एक खूबसूरत बगीचा बना हुआ है, जिसे माई जी की बगिया कहते हैं । इस बगिया में अकोेला पेड़ की नीचे दंतेश्वरी माई जी के पदचिन्ह बने हैं । श्रद्धालु पेड़ की शाखाओं में मनौती के चुनरी बांधते हैं। बस्तर के वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त कश्यप किताब दंतेवाड़ा शक्तिपीठ और सी.वी.एस.रेड्डी की किताब बस्तर की आदिषक्ति मां दंतेष्वरी के बारे में विस्तृत वर्णन है।
भैरव बाबा
मान्यता यह है कि बिना भैरव बाबा के देर्षन के माता का दर्शन अधूरा माना जाता है। इसी लिए दंतेष्वरी के दर्षन के बाद भैरव बाबा का दर्षन श्रद्धालु जरूर करते हैं। शंकनी डंकनी नदी के पष्चिम में भैरव बाबा के मंदिर बने हैं आजकल इस नदी पर पुल बन चुका है और पुल पार कर जाने के बाद पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैरव बाबा का मंदिर नजर आएगा । मंदिर के अंदर गर्भगृह में दुर्लभ प्रतिमाएं हैं जिन्हें वन भैरव, जटा भैरव, नृत्य भैरव और काल भैरव कहा जाता है। और 6 प्रकार के शिवलिंग, एक यज्ञ कुण्ड, और मंदिर के पीछे एक तालाब है जिसे भैरव बंद कहा जाता है।
मंदिर के अंदर बेताल की कई मूर्तियां भी हैं ।
वन देवी
भैरव बाबा मंदिर के पास ही वन देवी का मंदिर है जहां श्रद्धालु पेड़ों की पत्तियां अर्पित करते हैं । वन देवी को यहां डालखाई और वनदुर्गा भी कहा जाता है।