चैाराहों का शहर
जगदलपुर नगर को चैाराहों का शहर City of Squares कहा जाता है। इस नगर की सुंदर बसाहट की परिकल्पना रूद्रप्रताप के कार्यकाल में पं0 रायबहादुर बैजनाथ पंडा ने की थी। बस्तर के पूर्व महाराजा दलपत देव ने इसे 1770 के आस-पास राजधानी बनाया। रियासतकाल से लेकर आज तक शहर का विकास निरूत्तर हो रहा है। लगभग सभी सड़कों की योजना चैराहों से जुड़ी है। चैाराहों की अधिकता के कारण इसे चैाराहों का नगर (city of squares) कहा जाता है।
व्यावसायिकता और शहरी संस्कृति का आरंभ यहां की नई पहचान है। जगदलपुर की तासीर कुछ अलग ही है। शहरी सभ्यता के चाहे कितने भी प्रतिमान यहां गढ़ दिए जाएं किन्तु आदिम संस्कृति से जुड़ा विश्वास, आत्मीयता, स्वभाव और उसे संतोष से खुशी-खुशी जीने का उत्साह यहां की पहचान का महत्वपूर्ण अंग है। कहना होगा कि जगदलपुर शहर आदिवासी संस्कृति और नगरीय संस्कृति का अनोखा मिलन स्थल है।
व्यावसायिकता और शहरी संस्कृति का आरंभ यहां की नई पहचान है। जगदलपुर की तासीर कुछ अलग ही है। शहरी सभ्यता के चाहे कितने भी प्रतिमान यहां गढ़ दिए जाएं किन्तु आदिम संस्कृति से जुड़ा विश्वास, आत्मीयता, स्वभाव और उसे संतोष से खुशी-खुशी जीने का उत्साह यहां की पहचान का महत्वपूर्ण अंग है। कहना होगा कि जगदलपुर शहर आदिवासी संस्कृति और नगरीय संस्कृति का अनोखा मिलन स्थल है।
वर्तमान जगदलपुर विकास की नई अवधारणा के साथ कदमताल कर रहा है। झुकी हुई खपरैल की छतों के बीच अब इमारतें सिर उठाते दिख रही हैं। उद्योग की कल्पनाएं की जा रही हैं। आशाओं-आशंकाओं में झूलता एक नया जगदलपुर सामने आ रहा है। इसके भविष्य का रूप तो आने वाला समय ही तय करेगा।
जगदलपुर लगभग 250 वर्ष का हो गया है। जगतूगुड़ा के नाम से जाना जाने वाला एक छोटा सा गांव 1770 में चालुक्यवंश के राजाओं की राजधानी बनी। कालान्तर में अंग्रेजों ने इसे अपने प्रशासन के मुख्य केंद्र के रूप में स्थापित किया। 1947 में आजादी के बाद बस्तर का प्रशासनिक केंद्र जगदलपुर बना। आज बस्तर जिला तथा संभाग का यह मुख्यालय है। चालुक्यवंश वंश के 13 वें शासक राजा दलपत देव ने अपनी राजधानी ग्राम बस्तर से जगतूगुड़ा स्थानांतरित की और इसे जगदलपुर नाम दिया।
नामकरण की कहानियाँ
राजधानी स्थानान्तरण और शहर के नामकरण की दिलचस्प जनश्रुतियां हैं। जगतूगुड़ा को राजधानी बनाने के संदर्भ में पं. केदारनाथ ठाकुर की कृति बस्तर भूषण (1908) में उल्लेख आता है कि तत्कालीन बस्तर राजधानी के राजा दलपत देव अपने सहयोगियों के साथ इन्द्रावती नदी के तट पर शिकार खेलने आए थे। घने जंगलों के बीच कहीं से एक मादा खरगोश दिखाई दी। राजा के साथ शिकारी कुत्ते भी थे। उस मादा खरगोश को देखकर कुत्ते भागने लगे। इस दृश्य को देखकर राजा अचंभित हुआ कि एक मादा खरगोश ने किस तरह कुत्तों को डराकर खदेड़ दिया। उन्होंने विचार किया कि जरूर इस स्थान के मिट्टी की तासीर ऐसी है जो क्षेत्र के शक्ति को प्रदर्शित कर रही है। वैसे भी पूर्व राजधानी में पीने के पानी की किल्लत बहुत अधिक थी। चूंकि वनक्षेत्र के समीप ही इन्द्रावती नदी भी बहती है इसलिए राजधानी स्थानान्तरित करने पर उन्हें तथा राज्य की जनता को भी इसका लाभ मिला।
एक और मान्यता के अनुसार जगतूगुड़ा कबीले का मुखिया समीप के जंगल के जंगली जानवरों से परेशान था। आए दिन जंगली जानवर उनके पालतू पशुओं को खा जाते थे। जंगली जानवरों से रक्षा करने तथा उनसे मुक्ति दिलाने मुखिया ने राजा दलपत देव से अनुरोध किया। राजा शिकार के शौकीन तो थे ही, उन्होंने जगतू को आश्वासन दिया कि उनके क्षेत्र के जंगली जानवरों से शीघ्र ही मुक्ति दिलवायेंगे। कुछ समय तक लगातार शिकार करके, कबीले के मुखिया जगतू को जंगली जानवरों के भय से मुक्त किया। राजा दलपत देव को जगतू का गांव तथा नदी के तट का भौगोलिक क्षेत्रफल काफी पसंद आया। उन्होंने जगतूगुड़ा को राजधानी बनाने के लिए जगतू से चर्चा की। जगतू ने अपनी कुलदेवी से अनुमति लेकर राजा दलपत देव को राजधानी बसाने की अनुमति दी। कहा जाता है जगतू के ‘जग’ और दलपत देव के नाम से ‘दल’ शब्द का चयन करके जगदलपुर नामकरण किया।
जगदलपुर के शुरूआती दिनों की कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु जगदलपुर शहर राजधानी बनने के लगभग 92 वर्षों के उपरांत सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर सी.ग्लासफर्ड (1862) की रिपोर्ट में जगदलपुर की बसाहट व अन्य जानकारियां प्राप्त होती है। यह जानकारी उस दौर का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। सी.ग्लासफर्ड के रिपोर्ट अनुसार तब जगदलपुर में 400 झोपड़ियां थी तथा राजमहल एक बड़ी झोपड़ी के रूप में विद्यमान था। घास-फूस के छप्पर वाले कुटिया व मिट्टी की दीवारें होती थी।
1770 से 1947 तक
1770 से 1947 तक राजमहल प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र था, इसलिए उसे ही केंद्र बिन्दु मानकर यहां की बसाहट शुरू की गई। जगदलपुर को नियोजित आकार देने की परिकल्पना महाराजा रूद्रप्रताप देव के दीवान रायबहादुर बैजनाथ पंडा (1904-1910) ने की थी। बैजनाथ पंडा ने नगर के जलापूर्ति, जल निकासी, पहुँचमार्ग, सड़कों की व्यवस्था, प्रकाश व्यवस्था आदि मूलभूत नागरिक सुविधाओं को सुनिश्चित करने की कल्पना की थी। लंदन की प्रतिकृति पर इसे बनाने का खाका खींचा गया था किन्तु इस ड्रीम प्रोजेक्ट को वे स्वयं आकार नहीं दे पाए। 1910 के भूमकाल विद्रोह के बाद उन्हें हटा दिया गया। उसके पश्चात अंग्रेज प्रशासक कर्नल जेम्स ने विशेष योजनाओं का क्रियान्वयन करके इसे साकार किया। सड़कों का चैड़ीकरण किया तथा दोनों किनारों पर ड्रेनेज के लिए पर्याप्त जगह छोड़ी। संकरी गलियों को समाप्त कर विस्थापितों को बसाया। उस दौर में जातियों के हिसाब से पारा-टोला बसे। उस दौर के अनुसार ब्राम्हण पारा, पनारापारा, कुम्हारपारा, हिकमीपारा, राउतपारा, कोस्टापारा, घड़वापारा जैसे जातिसूचक क्षेत्रीय नामकरण नाम आज भी प्रचलित हंै। वर्तमान में इनका स्थान वार्डों ने ले लिया है। आज के प्रताप देव वार्ड का हिस्सा रियासतकाल में परदेशी पारा के नाम से जाना जाता था। आज जिसे भैरमदेव वार्ड के नाम से जाना जाता है, वहां आरण्यक ब्राम्हणों के परिवार बसाए गए थे।
250 वर्षों की यात्रा में जगदलपुर अनेक ऐतिहासिक घटनाओं व बदलावों का साक्षी रहा है। 1770 से 1947 तक रियासती दौर में जगदलपुर में आठ शासकों ने राज किया। इस दौरान एक दर्जन से अधिक दीवानों की हुकूमत रही। इनमें से कुछ नामदार तो कुछ कामदार साबित हुए।
राजाओं और दीवानों की रूचि राजकाज को लेकर अलग-अलग रही है। राजस्व, न्याय, वन, शिक्षा आदि से जुड़े फरमान यहां से जारी हुए। विभिन्न प्रशासक और दीवान बस्तर जैसे आदिवासी अंचल की दशा और दिशा बदलने वाले महानायक साबित हुए। 1876 के मुरिया विद्रोह के बाद लागू मुरिया दरबार की व्यवस्था आज पर्यन्त जारी है। 1910 के भूमकाल विद्रोह के बाद के दौर में आंदोलनकारियों को प्रताड़ित करने व सजा देने की अंग्रेजी हुकूमत का गवाह जगदलपुर का गोलबाजार है। तब इसे गेयर बाजार कहा जाता था। 25 मार्च 1966 में बस्तर राजघराने के 20 वें शासक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की राजमहल गोलीकांड में हत्या हो गई थी। राजतंत्र से लोकतंत्र के ढाई सौ साल की जगदलपुर की यात्रा में अनेक पड़ाव आए।
राजाओं और दीवानों की रूचि राजकाज को लेकर अलग-अलग रही है। राजस्व, न्याय, वन, शिक्षा आदि से जुड़े फरमान यहां से जारी हुए। विभिन्न प्रशासक और दीवान बस्तर जैसे आदिवासी अंचल की दशा और दिशा बदलने वाले महानायक साबित हुए। 1876 के मुरिया विद्रोह के बाद लागू मुरिया दरबार की व्यवस्था आज पर्यन्त जारी है। 1910 के भूमकाल विद्रोह के बाद के दौर में आंदोलनकारियों को प्रताड़ित करने व सजा देने की अंग्रेजी हुकूमत का गवाह जगदलपुर का गोलबाजार है। तब इसे गेयर बाजार कहा जाता था। 25 मार्च 1966 में बस्तर राजघराने के 20 वें शासक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की राजमहल गोलीकांड में हत्या हो गई थी। राजतंत्र से लोकतंत्र के ढाई सौ साल की जगदलपुर की यात्रा में अनेक पड़ाव आए।
रियासतकाल के मंदिर, महल व अन्य स्मारक आज भी नजर आते हैं। इनमें से कुछ समय के साथ नष्ट हो गए तो कुछ अतिक्रमित। राजा रूद्र प्रतापदेव के शासनकाल में अनेंक भवनों का निर्माण हुआ। उस दौर के विश्राम भवन, जेल, पुराने कोर्ट भवन समेत अधिकारियों के आवास, मंदिर आदि आज भी मौजूद हैं
1 जनवरी 1948 को भारतीय संघ में बस्तर रियासत का विलीनीकरण किया गया और अविभाजित बस्तर जिला का मुख्यालय बना। एक दौर था कभी बस्तर जिलाध्यक्ष को उत्तर में चारामा से लेकर दक्षिण में कोंटा तक प्रशासन देखना पड़ता था। कभी बस्तर रायपुर संभाग के अधीन था। 1982 में बस्तर को संभाग का दर्जा दिया गया और जगदलपुर कमिश्नरी मुख्यालय भी बन गया। यह आज जिला व संभाग मुख्यालय भी है।
पहली बड़ी बिल्डिंग कलेक्टोरेट है जिसे 1962 में बनाया गया था। यह भवन उस दौर में मात्र 9 लाख रूपयों में निर्मित हुआ था इसलिए उसे आज नवलखा बिल्डिंग के नाम से भी जाना जाता है। कमिश्नर कार्यालय भवन, न्यायालय भवन, जिला पंचायत भवन, नगर निगम भवन, नया बस स्टैंड, बी.एस.एन.एल.कार्यालय समेत अनेंक बड़ी बिल्डिंग पिछले तीन-चार दशकों में बनाई गई। रियासतकाल के दलपत सागर व गंगामुण्डा तालाब का वजूद बचा हुआ है, शेष केवरामुण्डा, नयामुण्डा, बांसमुण्डा, बालातरई, माता तरई आदि छोटे-बड़े तालाब, पोखर अस्तित्व खो चुके हैं।
जगदलपुर राजधानी में राजाओं का कार्यकाल
दलपत देव- (1731-1775)
दरियाव देव- (1777-1800)
महिपाल देव - (1800-1842)
भूपालदेव - (1842-1853)
भैरमदेव - (1853-1891)
रूद्र प्रतापदेव - (1891-1921)
महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी - (1921-1936)
प्रवीरचंद्र भंजदेव- (1936-1947)
Courtesy: Heritage of Jagdalpur.