मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक बस्तर का मुक्ति संग्राम के कुछ पन्ने उलटने के बाद में बस्तर के इतिहास के बारे में कई जानकारियां मिली जो बड़ी दिलचस्प और ज्ञान वर्धक थीं । इसमें बस्तर में हुए ब्रिटिश काल का पूरा ब्यौरा विस्तार से दिया है। डाॅ हीरालाल शुक्ल ने इसे लिखा है।
जो पुस्तक मुझे मिली उसका प्रथम संस्करण 1995 अंकित है
डाॅक्टर हीरालाल शुक्ल के बारे मेंबरकतुल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल में तुलनात्मक भाषा एवं संस्कृति विभाग में आर्चाय रहे चुके हैं । बस्तर के बारे में लिखी इनकी किताब बस्तर का मुक्ति संग्राम (1774-1910)बस्तर के इतिहास को जानने समझने का एक अच्छा श्रोत है।
मै यहां इसी किताब में लिखी बातों का उल्लेख कर रहा हूँ जिससे यह जानकारी मिलती है कि बस्तर में कभी नरबली की प्रथा थी । नरबली यानि इंसानों की बली, आज पशुबलि की प्रथा है , नरबलि हांलाकि खत्म हो चुकी है। मगर इसका इतिहास काफी पुराना है।
घटनाक्रम:-
बात 1837 की है जब मद्रास- प्रसीडेंसी और उड़ीसा के अधिकारियों ने 1837 ई में सरकार को (ब्रिटिश सरकार को )ये सूचना दी थी कि बस्तर में खास अवसरों पर नरबलि होती है तो ब्रिटिश सरकार ने मराठों को इसे बंद करने का जिम्मा सौंपा। चूंकि उस वक्त बस्तर मराठों के अधीन था और मराठा शासन ब्रिटिश शासन के अधीन -तो जाहिर यह मराठों की जिम्मेदारी हो गई कि इसकी पड़ताल करे। मराठों ने बस्तर के दीवान लाल दलगंजनसिंह को 1842 में नागपुर में तलब किया गया । उस वक्त बस्तर नागपुर से संचालित होता था। दीवान लाल दलगंजनसिंह के विवरण से मराठा शासकों को यह संदेह हुआ किया बस्तर में नरबलि की प्रथा है
दंतेवाड़ा में मराठे सैनिक तैनात:-
परिणाम स्वरूप दंतेवाड़ा मंदिर के चारों तरफ सुरक्षा सैनिकों की टुकड़ी तैनात कर दी गई और बस्तर राजा पर मराठों ने अभियोग चलाया । उस वक्त बस्तर के महाराजा भूपाल देव थे। अभियोग के दौरान भूपाल देव ने ऐसी किसी भी प्रथा की जानकारी के बारे में अपनी अनभिज्ञता प्रगट की ।और आवश्वस्त किया कि अगर ऐसी कोई प्रथा होगी तो खत्म कर दी जाएगी। (वर्तमान में ऐसे कई आवश्वासन हमारे नेता देते रहते हैं । ) मगर भूपाल देव की राजगद्दी छीन ली गई । घटना क्रम पर गौर करें तो महज शिकायत पर इतना बड़ा फैसला लिया गया । आज स्वतंत्र भारत में अकेले बस्तर की बात कहूँ तो कई मामले ऐसे हैं जो वर्षों से लंबित है निराकरण की बाट देख रहें हैं या फिर ध्यान दिए जाने की जरूरत है ।इसके बाद भी ब्रिटिश सरकार ने सन 1852 में मैकफर्सन को बस्तर से जुड़े क्षेत्रों में नरबलि की जांच के लिए भेजा। और मैसफर्सन ने अपनी रिपोर्ट जो शासन को दी उससे स्पष्ट हो गया कि बस्तर में नरबलि की प्रथा थी। रिपोर्ट के अनुसार कुछ बिन्दुओं पर गौर करे तो पाते है। उसके कारण और किसकी बली दी जाती थी। उनकी रिपोर्ट "कोलोनल मैकफर्सन जर्ननल आफ रायल ऐसेटिक सोसाईटी , कोलकत्ता 1852 वाल्युअम 13 पेज 243 में है।"
जानते रिपोर्ट के महत्वपूर्ण बिन्दुओं के बारे में क्यों दी जाती थी बलि
ताड़ी देव या माटीदेव की पूजा में प्रमुख संस्कार नरबिल होता है। और इसे एक उत्सव के रूप में आयोजित की जाती है। इसका आयोजन विशेष समय में होता है। जब किसी महामारी या अन्य किसी बिमारी में अकाल मृत्यु की संख्या बढ़ जाती थी । तब नरबलि आयोजित की जाती थी जब गांव के मुखिया के परिवार में कोई आपदा आती है। बलि देने वाले लोगों को मेरिया कहा जाता था ।
मेरिया कौन होते थे?
वे अपराधी या किसी पिता द्वारा बलि के लिए दिए गए पुत्र होते थे। पावाँ एवं गहिंगा जनजातियों द्वारा वध्यजनों की पूर्ति की जाती है। इतिहास कार के अनुसार सबसे ज्यादा बलि सन 1826 में हुए । जिसमें 25 से 27 लोगों को एक साथ बलि दी गई । ये बलि उस वक्त दी गई बस्तर के राजा महिपाल देव नागपुर के राजा से मिलने जा रहे थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी लोग नरबलि के मांस का प्रसाद के रूप ग्रहण करते थे। सन 1855 में उड़िसा क्षेत्र के एजेण्ट कैप्टन जे. मैकविकार महिपाल देव के पुत्र भूपालदेव तथा दीवान दलगंजनसिंह से मिले थे और उन्होंने अनेक रिपोर्ट में निहित तथ्यों के जांच के लिए दंतेवाड़ा की यात्रा की थी।
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अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदारी की ये मिसाल अब बस्तर में देखने को नहीं मिलती । क्योंकि आजादी के बाद से लगातार ईमानदारी पूर्वक काम करने का जस्बा देखने को कम ही मिलता है। आज भी बस्तर में ऐसे कई मामले हैं जो लंबित हैं और शिकायतों की बात ही छोड़िए!