मुरिया दरबार
बस्तर दशहरे के दौरान मुरिया दरबार के बारे में अक्सर आपने सुना होगा। मुरिया दरबार दशहरे की आखिरी रस्म के तौर पर की जाती है मगर सच तो यह है कि यह आखिरी रस्म नहीं है। मावली देवी की बिदाई के साथ बस्तर दशहरे का समापन होता है।
दरअसल मुरिया दरबार एक ऐसी बैठक है जो परम्परानुसार दशहरे में ही आयोजित की जाती है। जिसमें बस्तर जिले से जुड़ी समस्याओं का चर्चा की जाती रही है और इस बैठक में राज परिवार के सदस्यों के अलावा, मंत्री, नेता तथा प्रशासनिक अफसर अनिवार्य रूप से शामिल होते हैं
दरअसल मुरिया दरबार एक ऐसी बैठक है जो परम्परानुसार दशहरे में ही आयोजित की जाती है। जिसमें बस्तर जिले से जुड़ी समस्याओं का चर्चा की जाती रही है और इस बैठक में राज परिवार के सदस्यों के अलावा, मंत्री, नेता तथा प्रशासनिक अफसर अनिवार्य रूप से शामिल होते हैं
कब हुई मुरिया दरबार की शुरूआत
इतिहास के पन्नों को उलटने पर यह ज्ञात होता है कि पहली बार मुरिया दरबार 8 मार्च 1876 को लगा था यानि आजादी के पहले। इस मुरिया दरबार में सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मेकजार्ज ने राजा और उनके अधिकारियों को संबोधित किया था। बस्तर संभाग में कई जनजातियां रहती हैं जैसे - हल्बा, भतरा, धुरवा, गदबा, दोरला, गोंड, मुरिया, राजा मुरिया, घोटुल मुरिया, झोरिया मुरिया इत्यादि । अतः इन जनजातियों के पहचान के लिए इस बैठक को मुरिया दरबार कहा जाने लगा । बस्तर में बोली जाने वाली हल्बी में मुर का मतलब है शरू या प्रारम्भ । मूरिया बस्तर के मूल निवासी होते हैं । हांलांकि रियासत काल में इस संबोधन का प्रचलन नहीं था। बस्तर के इतिहासकार व लेखक रूद्रनारायण पानिग्राही ने अपनी किताब बस्तर दशहरा में लिखा है -‘‘ मुरिया अर्थात् मूलिया मूल संज्ञा का विशेषण है। मूलिया शब्द का अर्थ मूल से ही है। इसी मूलिया शब्द के अतिशय प्रयोग से मुरिया परिवर्तित हो गया।’’
वे आगे लिखते हैं -"मुरिया दरबार में ग्रामीण और शहरी जनप्रतिनिधियों के बीच आवश्यक विषयों को लेकर चर्चा होती है। रियासत काल में जनता और राजा के मध्य वर्ष में एक बार दरबार के माध्यम से विभिन्न मुद्दों को लेकर विचार-विमर्श हुआ करता था।"क्या होता था इस दरबार में
इस दरबार में उस वक्त रखी गई समस्याओं का तुरन्त समाधान किया जाता था। और जो समस्याएं विभिन्न क्षेत्रों से राजा तक आती थी वे रियासत के मांझी, मुखिया, कोटवार, चालकी, नाईक, पाईक आदि जनप्रतिनिधियों के माध्यम से आती थीं समस्याओं पर चर्चा की जाती थी। कोशिश ये की जाती थी कि समस्याएं आगे चलकर बड़ी समस्या न खड़ी करें । आज की षिकायतें लम्बी और लम्बित रहतीं हैं ।
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इतिहास की बात करें तो यह दरबार श्रृंगारसार यानि सीरहासार में आयोजित की जाती थी। जिसमें रियासत के जमींदार, मालगुजार, कपड़दार, राज परिवार के लोग, बस्तीदार और गणमान्य नागरिक मौजूद होते थे। राजा साहब की अगुवानी के पश्चात् पड़िहारों के द्वारा मधुर वाद्य बजाए जाते थे, इस वाद्य के साथ राजा साहब के गुणगान करने वालों की उपस्थिति भी रहती थी। अंत में राजा साहब के उठने के पूर्व सलामी दी जाती थी और इस तरह आधी रात तक दरबारियों की बैठकें चलती रहती थी। प्रतिदिन होने वाले कार्यों की समीक्षा भी राजा साहब करते थे।
स्रोत : बस्तर दशहरा (लेखक-रूद्रनारायण पानीग्राही )
आज का मुरिया दरबार
आज के मुरिया दरबार में मंत्रियों नेताओं, प्रशासनिक अधिकरियों का बोल बाला होता है और मांझी चालकी, मेम्बरीन और अन्य दषहरा समिति से जुड़े लोग दर्षक दीर्घा में ही मौजूद रहकर पूर्व निर्धारित प्रष्न उठाते हैं। नेताओं और मंत्रियों की सुरक्षा के मद्देनजर आम आदमी इस दरबार में नहीं बैठ पाता है। आधुनिक मुरिया दरबार में ऐसी कई समस्याएं और जो वर्षों बीत जाने के बाद भी नहीं निपटाए गए हैं।