छत्तीसगढ़ में मौजूदा जनजातियों के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है । डी.एन.तिवारी के लिखित स्रोतों से ज्ञात होता है
जो भारतीय जनगणना पर आधारित है वह यह कि छत्तीसगढ़ में 42 से अधिक जनजातिया निवास करती हैं। जनजाति का अर्थ होता है प्राचीन निवासी या मूल निवासी। इनके विस्तार के आधार पर इन्हें तीन क्षेत्रों में बांटां गया है। यह हैं :-
उत्तरी क्षेत्र
मध्य क्षेत्र
और दक्षिण क्षेत्र
उत्तरी क्षेत्र में आने वाले क्षेत्र कोरिया, सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ कोरबा, बिलासपुर, जाँजगीर,-चाँपा जिले सम्मिलित हैं
तो मध्य क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इलाके हैं धमतरी, रायपुर, महासमुंद, दुर्ग,राजनांदगाँव, कबीरधाम सम्मिलित हैं
तो दक्षिणी क्षेत्र में बस्तर दंतेवाड़ा तथा कांकेर जिले आते हैं । छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों का विवरण इस प्रकार है
यह जनजाति प्रमुख रूप से बस्तर में निवास करती है। गोंड शब्द की उत्पत्ति तेलुगु शब्द कोंड से मानी जाती है। जिसका मतलब पर्वत या पहाड़ होता है। यह जनजाति की शुरूआत गोंडवाना से शुरू होती है । गोंडवाना राज्य नर्मदा नदी को दोनों तरफ होता था जो सतपुड़ और विंध्याचल पर्वत का पूरा क्षेत्र होता था। यही क्षेत्र गोंडवाना कहलाता था। इनका व्यवसाय शिकार करना तथा मछली मारना होता था। अब यह जनजाति कृषि और दिहाड़ी मजदरी का काम भी करती है। इसकी अपनी 41 उपजातिय समूह है।गोंड के दो उप वर्ग हैं एक राजगोंड और धुरगोंडा बस्तर की बात कहें तो यहाँ तीन प्रमुख उपजातियां पाई जाती हैं मारिया,मुरिया और डोरला। परम्पराएं इनमें पलायन,पैठ, सेवा, विवाह खास तौर पर प्रचलित विवाह है । वधु मूल्य देने की परम्परा आज भी जीवित है। विधवा विवाह की मान्यता है।
मारिया गोंड में घोटुल की प्रथा प्रचलित है जो एक प्रमुख सामाजिक एवं धार्मिक संगठन हैं
क्या है घोटुल
समाजिक आर्थिक जीवन का पाठ इस संगठन में पढ़ाया जाता है । मुरिया जनजाति के लोग इसकी उत्तपत्ति अपने देवता लिंगोपेन से मानते हैं। इस संगठन में प्रत्येक युवा जो अविवाहित होते हैं यहाँ पारम्परिक ज्ञान के लिए आते हैं । यहाँ नृत्य,संगीत और लोककथाओं के माध्यम से मनोरंजन के साथ समाजिक कार्यों का निर्वहन भी होता है।
अबूझमाड़
दक्षिण बस्तर का पर्वतीय क्षेत्र लगभग डेढ़ हजार वर्ग मील फैला हुआ है यह क्षेत्र घने जंगलों से भी घिरा है इस क्षेत्र को अबूझमाड़ कहते हैं और यहाँ रहने वाली जनजातियो को अबूझमाड़िया या हिल माड़िया कहा जाता है। यह भी गोंड की एक उपजाति है। आप जानते हैं कि गोंड की कुल 41 उपजातियां पूरे छत्तीसगढ़ में निवास करती हैं । यह क्षेत्र दुर्गम होने के कारण बाहरी दुनियां से अलग-थलग है। इसीलिए इस जनजाति की अपनी अलग रीति-रिवाज, परम्पराएं और मान्यताएं हैं । यह जनजाति आज भी बहुत पिछड़ी हुई है। इसीलिए भारत शासन ने इसे अत्यंत पिछड़ी जनजाति की सूचि में शामिल किया है। अबूझमाड़िया दो शब्दों से मिल कर बना है अबूझ मतलब अज्ञात और माड़ मतलब वृ़क्ष या जंगल। मूल निवासी अपने आपको आज भी मेटाभूम पुकारते हैं । ये स्थानांतरित खेती करना पसंद करते है। जिसे पेंडा कहते हैं । यह क्षेत्र परगनों में बंटा है और इसके मुखिया को परगना मांझी कहते हैं जो अपने छोटे मोटे झगड़ों के निपटारे के लिए मांझी का ही सहारा लेते हैं । मैदानी इलाकों में रहने वाले माड़िया को दंडामी या बायसन हार्न माड़िया कहा जाता है। उत्सवों पर यही दंडामी माड़िया जनजाति के लोग बायसन हार्न यानि भैंस की सींगों से बना मुकुट धारण कर नृत्य करते हैं।
दक्षिण बस्तर का पर्वतीय क्षेत्र लगभग डेढ़ हजार वर्ग मील फैला हुआ है यह क्षेत्र घने जंगलों से भी घिरा है इस क्षेत्र को अबूझमाड़ कहते हैं और यहाँ रहने वाली जनजातियो को अबूझमाड़िया या हिल माड़िया कहा जाता है। यह भी गोंड की एक उपजाति है। आप जानते हैं कि गोंड की कुल 41 उपजातियां पूरे छत्तीसगढ़ में निवास करती हैं । यह क्षेत्र दुर्गम होने के कारण बाहरी दुनियां से अलग-थलग है। इसीलिए इस जनजाति की अपनी अलग रीति-रिवाज, परम्पराएं और मान्यताएं हैं । यह जनजाति आज भी बहुत पिछड़ी हुई है। इसीलिए भारत शासन ने इसे अत्यंत पिछड़ी जनजाति की सूचि में शामिल किया है। अबूझमाड़िया दो शब्दों से मिल कर बना है अबूझ मतलब अज्ञात और माड़ मतलब वृ़क्ष या जंगल। मूल निवासी अपने आपको आज भी मेटाभूम पुकारते हैं । ये स्थानांतरित खेती करना पसंद करते है। जिसे पेंडा कहते हैं । यह क्षेत्र परगनों में बंटा है और इसके मुखिया को परगना मांझी कहते हैं जो अपने छोटे मोटे झगड़ों के निपटारे के लिए मांझी का ही सहारा लेते हैं । मैदानी इलाकों में रहने वाले माड़िया को दंडामी या बायसन हार्न माड़िया कहा जाता है। उत्सवों पर यही दंडामी माड़िया जनजाति के लोग बायसन हार्न यानि भैंस की सींगों से बना मुकुट धारण कर नृत्य करते हैं।
भतरा
सम्भवतः इस शब्द की उत्पत्ति भृत्य शब्द से ही हुई है जिसका अर्थ है सेवक आज भी भतरा जनजाति के लोग घरूलु नौकर या watchman का काम करते हैं। पहले ये स्थानांतरित खेती करते थे अब ये स्थायी खेती करने लगे हैं। इनके तीन उपभेद हैं पीत,अमनैत और सान जिनके सदस्य विवाह के पहले एक दूसरे के घर भोजन नहीं करते हैं ।ये कई बर्हिविवाही गोत्र समूहों में बंटे हैं ।
कंवार अथवा कनवार
ये जनजाति के लोग रायगढ़ सरगुजा, और बिलासपुर जिलों में मिलते हैं । इनका पारम्परिक व्यवसाय सेना में कार्य करना था। बाद में इनका मुख्य व्यवसाय कृषि और ये दैनिक मजूदरी करके भी अपना जीवन यापन करना हो गया । ये सदरी बाली बोलते हैं जो इंडो-आर्यन भाषा के अंतर्गत आती है। इनके आठ प्रकार के उपजातियां होती हैं -इनके नाम है तनवर,कमलबंसी, पैकरा, दूधकंवर,राठिया, ठंटी, छेखा तथा राउतिया। इसके अलावा कई टोटम समूह हैं जिन्हें गोटी कहते हैं । कुवांरी स्त्रियाँ एक विशेष प्रकार के गोदना या टैटू गोदवाती हैं जो इनकी खास पहचान है।
हल्बा
ये जनजाति के लोग बस्तर और दक्षिण रायपुर में मिलते हैं। इनकी स्वयं की जमीन होने के कारण ये सम्पन्न और विकसित जनजाति मानी जाती है। इनकी तीन उपजातियाँ होती हैं बस्तरिया, छत्तीसगढ़िया और मरेठिया। मरेठिया और छत्तीसगढ़िया में वैवाहिक सम्बध होते हैं । बस्तरिया बोली में मराठी, छत्तीसगढी बोली और उड़िया का मिला जुला रूप देखने को मिलता है । बस्तरिया अपने ही समूह में विवाह करते हैं । अधिंकाश हल्बा कबीरपंथी हो गए हैं ।
उरांव
यह द्रविड़ियन जनजाति छोटा नागपुर की प्रमुख जनजाति है जो छत्तीसगढ़ में रायढ़, जशपुर और सरगुजा में निवास करती हैं इन्हें सामान्यतः धांगर के नाम से जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है -शर्तों के अधीन रखे गए श्रमिक । द्रविड़ियन शाखा से संबद्ध होने के बावजूद भी ये गोंड से पृथक बाली बोलते हैं। जिसे कुरूख कहते हैं । ये कई टोटम समूह गोत्र में बँटे हुए हैं। ये जनजाति के लोग काफी संख्या में ईसाई धर्म अपना लिया है।
बिंझवार
इस जनजाति की उत्पत्ति विन्ध्य पर्वत से मानी जाती है। और यह विन्ध्य वासिनी देवी की पूजा करते हैं। यह जनजाति रायुपर और बिलासपुर जिले में निवास करती है। यह जनजाति मंडला तथा बालाघाट के बैगा जनजाति की एक शाखा है। परन्तु अब ये बैगा से अपने सम्बन्धों को नकारते हैं तथा एक अलग जनजाति के रूप में विकसित हो गए हैं। इनके चार उप जातियाँ हैं बिंझवार, सोनझाार, बिरझिया और बिंझिया । बिलासपुर में रहने वाली जनजाति बिंझिया स्वयं को अलग जनजाति क रूप में मानते हैं। बिंझवार के पूर्वज बिलासपुर बिंझाकोप से लम्पा की ओर आए थे।
बैगा
इनकी उत्तपत्ति के बारे में मान्यता यह है कि ईश्वर ने नंगा बैगा और बैगिन बनाया जिनसे मानव सभ्यता का जन्म हुआ। इनकी पहली संतान के रूप में बैगा और दूसरी संतान के रूप में गोंड पैदा हुआ। एक जनश्रुति के अनुसार बैगा ने एक दिन में दो हजार वृक्षों को काट दिया तब ईश्वर ने वृक्ष की राख पर कुछ दाने डालकर कुछ महा आराम करने को कहा । इस प्रकार स्थानांतरित खेती की शुरूआत हुई। जिसे बेवर खेती कहते हैं।
यह जनजातियाँ बिलासपुर, कर्वधा और राजनांदगांव जिल में निवास करती है।इनकी सात उपजातियाँ पायी जाती हैं। ये हैं बिंझवार, भरोतिया, नरोतिया,राइभाईना, कहभईना, कोंडवन या कुंडी तथा गोंडवैना। इनमें बिंझवार अपने को बैगा की उपजाति नहीं मानती है।
इसके अलावा छत्तीसगढ़ में भारिया,सांवरा/सांवर, अगरिया, भैना, धनवार, कमार, कोरबा ,नागेशिया,मंझवार, खैरवार प्रमुख जनजातियां है जो छत्तीसगढ़ में पायी जाति हैं।
भारिया
ये छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में प्रमुख रूप निवास करते हैं। भूमिया का अर्थ होता है।मिट्टी के देवता । किवदंती है कि महाभारत युद्ध के दौरान जब पांडवों के दिन अच्छे नहीं चल रहे थे तो अर्जुन ने भारू घास हाथों में भरकर उनसे मानव बनाया जिन्हों कौरवों से युद्ध करने में साथ दिए । भारिया इन्हीं के वंशज माने जाते हैं। वे सम्पन्न गोंडों के साथ रहे और अपनी कोल वंशी भाषा को भूल गए और बाद में इन्होंने द्रविड़ गोंडों की भाषा और संस्कृति अपना लिया
सांवर या सांवरा
छत्तीसगढ़ में ये जनजाति अच्छे कृषक माने जाते हैं। ये कोलोरियन कुटुम्ब की शाखा है। ये लरिया तथा उरिया दो प्रमुख भागों में बंटे है।
आगरिया
इनकी उत्पत्ति आग या अग्नि से मानी जाती है। इस जनजाति को गोड़ों की उपशाखा मानी जाती है। ये मूलतः लोहा गलाने या लोहे का व्यवसाय करते हैं। इनके समाज में उड़द दाल का बहुत महत्व है। सभी सामाजिक अवसरों पर उड़द से बने व्यंजन बनाए जाते हैं। ये छत्तीसगढ़ मंे रायपुर और बिलासपुर में निवास करते है।
ये छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में प्रमुख रूप निवास करते हैं। भूमिया का अर्थ होता है।मिट्टी के देवता । किवदंती है कि महाभारत युद्ध के दौरान जब पांडवों के दिन अच्छे नहीं चल रहे थे तो अर्जुन ने भारू घास हाथों में भरकर उनसे मानव बनाया जिन्हों कौरवों से युद्ध करने में साथ दिए । भारिया इन्हीं के वंशज माने जाते हैं। वे सम्पन्न गोंडों के साथ रहे और अपनी कोल वंशी भाषा को भूल गए और बाद में इन्होंने द्रविड़ गोंडों की भाषा और संस्कृति अपना लिया
सांवर या सांवरा
छत्तीसगढ़ में ये जनजाति अच्छे कृषक माने जाते हैं। ये कोलोरियन कुटुम्ब की शाखा है। ये लरिया तथा उरिया दो प्रमुख भागों में बंटे है।
आगरिया
इनकी उत्पत्ति आग या अग्नि से मानी जाती है। इस जनजाति को गोड़ों की उपशाखा मानी जाती है। ये मूलतः लोहा गलाने या लोहे का व्यवसाय करते हैं। इनके समाज में उड़द दाल का बहुत महत्व है। सभी सामाजिक अवसरों पर उड़द से बने व्यंजन बनाए जाते हैं। ये छत्तीसगढ़ मंे रायपुर और बिलासपुर में निवास करते है।
भैना
इनकी उत्पत्ति कंवर और बैगा के मिश्रण से मानी जाती है । इनका मुख्य व्यवसाय खेती है। इस जाति की दो उपजाति होती है- लरिया या छत्तीसगढ़ी भैना तथा उड़िया भैना। इसके अलावा दो अन्य उप जतियाँ भी होती है जिन्हें झलआरा और घटयारा कहा जाता है। झलयारा जनजातिय लोगों के घर पत्तों से बने होते हैं तो घटयारा की पहचान यह है कि ये अपने दरवाजे पर घंटा बांधते हैं। इसके अलावा यह जनजाति कई टोटम समूहों में बंटी हुई है।
धनवार
ये शिकारी जनजाति है जो बिलासपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में रहती है। इन्हें धनुहर भी कहा जाता है। धनवार अपनी उत्पत्ति गोंड से मानते है। ये धानन वृक्ष से बने धनुष बाण का उपयोग करते हैं । इनके तीर नुकीली पात लगात हैं जिसे फनी कहते हैं । इस जाति में प्रत्येक को धनुष विद्या का ज्ञान कराना आवश्यक है । लड़के पांच वर्ष की उम्र से ही धनुष-बाण चलाने लगते हैं । प्रत्येक घर में धनुष की पूजा होती है और विवाह के समय वर धनुष लकर आता है।
कमार
राजपुर जिले में मुख्यतः यह जनजाति निवास करती है। यह अत्यंत पिछड़ी जनजाति मानी जाती है। इनकी उत्पत्ति के संबध में कहा जाता है कि भगवान शिव ने सृष्टि के पुर्ननिर्माण के समय एक व्यक्ति को तीर,कमान कुल्हाड़ी देकर कहा कि शिकार और स्थानांतरित खेती करो। अतः ये जनजाति शिकारी और स्थानांतरित खेती करती है। इनकी स्त्रियां बांस की टोकरी बनाती है। ये इनका परम्परगत काम है। इनके सात गोत्र होते हैं। ये हैं मरकाम, सोरी, मरकाम, मरई और छेदइया प्रमुख है।
कोरबा
कोरबा शब्द की उत्पत्ति होडावास से मानी जाती है। जिसका अर्थ है पृथ्वी खोदने वाला । सरगुजा-रायगढ़ और बिलासपुर में यह जनजाति निवास करती है। यह कोल या मुंडा जनजाति की एक शाखा है। ये कोलेरियन परिवार की जनजाति है जो कोरबोर सिंगली या कोरबा बोली बोलते है। ये स्वयं को जंगल का मूल निवासी मानते हैं। मांझी इनका एक समूह है जो रायगढ़ में निवास करता है। इनके दो समूह है - देहाड़ी यानि मैदानों में रहने वाले तथा पहाड़ी अर्थात् पहाड़ों में रहने वाले।
नागेशिया
ये मुंडारी भाषा की एक बोली बोलते हैं जिन्हें सदरी कहते हैं । इनकी उत्पत्ति नाग वंशिया से मानी जाती है इसीलिए इन्हें सर्प का वंशज कहते हैं। इनके तीन अन्र्तविवाही समूह होते हैं । ये हैं तेलहा, धुरिया और सेंदुरिया । इनके शारीरिक लक्षण मुंडा से मिलते जुलते हैं । ये रायगढ़ और सरगुजा जिले में निवास करते हैं ये स्वयं को किसान कहते हैं।
मंझावर
मंझावर
ये एक मिश्रित जनजाति है जो कंवार, गोंडख् और मुंडा से पैदा हुए हैं । ये मांझी या मांझिया के नाम से भी जाने जाते है। इनका निवास प्रमुखतः रायगढ और सरगुजा वाला क्षेत्र है। मांझी यानि मुखिया और मांझी यानि नाव चलने वाला । इनके कई टोटम समूह है। रायगढ़ जिले के मांझी मछुआरे हैं और ये मुंडा और संथाल से मिलते जुलते हैं ।
खैरवार
ये बिलासपुर और सरगुजा जिले में रहते हैं ।ये खरवार या खरिया या खेरया के नाम से भी जाने जाते हैं । इनकी उत्पत्ति खैर से मानी जाती है क्योंकि ये खैर वृक्ष की छाल से कत्था निकालने का कार्य करते है। कैमूर पहाड़ी के खेरवार की उत्पत्ति गोंड तथा सांवरा के सम्मिश्रण से मानी जाती है। इसलिए ये दूसरे जगहों के खैरवार से अलग दिखते हैं । इनकी कई उपजातियां होती है जिनके नाम प्राणियों पेड़ पौधों के नाम पर रखे गए हैं।
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