बस्तर से राजधानी बनी जगदलपुर
भोंसलों के आक्रमण से भयभीत होकर महाराजा दलपत देव ने 1770 में जगदलपुर को अपनी राजधानी बनाया । और तीन साल के बाद (1773 में ) दलपत देव की मृत्यु हो गई ।
भोंसलों के आक्रमण से भयभीत होकर महाराजा दलपत देव ने 1770 में जगदलपुर को अपनी राजधानी बनाया । और तीन साल के बाद (1773 में ) दलपत देव की मृत्यु हो गई ।
दलपत देव के बाद बस्तर
अंगे्रज यात्री जे. टी. ब्लंट ने अपनी यात्रा वृतांत में लिखा है कि गुड़ और नमक के प्रति आदिवासियों की रूचि बढ़ने लगी। और वस्तुविनिमय का व्यापार आरम्भ होने लगा। और बस्तर में बंजारों का
आगमन होने लगा जो भोंसलों के कहने से यहाँ के लोगों को सभ्य बनाने आये थे ताकि बस्तरवासी बंजारों के माध्यम से उनके राज्य में बनी वस्तुऐं खरीद सकें।
फिर हुआ वस्तुविनिमय का व्यापार और आदिवासियों को शोषण
बंजारों बस्तर में रहने वालों गोड़ समुदाय के लोगों को अनेक आदामदायक चीज़े उपलब्ध करावाई और उन वस्तुओं के प्रति बस्तर वासियों की रूचि पैदा करने की कोषिष करने लगे। चूंकि वस्तु विनिमय का व्यापार चलन में था तो आदिवासी लाख, लौह अयस्य और अन्य वनोपज के बदले उत्पाद बंजारों से लेने लगे । और आदिवासियों को इन उत्पादों को पाने के लिए दुगनी मेहनत करनी पड़ती थी । जाहिर है इससे उनकी सभ्यता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आगे चलकर यही गोड़ों के विद्रोह की वजह बनी। बंजारों ने मराठों और अग्रेजों के लिए बस्तर आने का रास्ता सुलभ कर दिया।
फिर हुआ वस्तुविनिमय का व्यापार और आदिवासियों को शोषण
बंजारों बस्तर में रहने वालों गोड़ समुदाय के लोगों को अनेक आदामदायक चीज़े उपलब्ध करावाई और उन वस्तुओं के प्रति बस्तर वासियों की रूचि पैदा करने की कोषिष करने लगे। चूंकि वस्तु विनिमय का व्यापार चलन में था तो आदिवासी लाख, लौह अयस्य और अन्य वनोपज के बदले उत्पाद बंजारों से लेने लगे । और आदिवासियों को इन उत्पादों को पाने के लिए दुगनी मेहनत करनी पड़ती थी । जाहिर है इससे उनकी सभ्यता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आगे चलकर यही गोड़ों के विद्रोह की वजह बनी। बंजारों ने मराठों और अग्रेजों के लिए बस्तर आने का रास्ता सुलभ कर दिया।
Naga Dynasty in Bastar
दलपत देव ने युवावस्था में ही अपने अपने पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह को ड़ोगर का उत्तराधिकारी बना दिया था। जब दलपतदेव की मृत्यु हुई तो रानी के पुत्र दरियावदेव ने अजमेर सिंह पर हमला कर दिया। दोनों के बीच भंयकर संघर्ष हुआ। और दरियावदेव को ड़ोगर छोड़कर जगदलपुर भागना पड़ा। 1774 में अजमेर सिंह बस्तर रियासत के राजा बना। उधर दरियावदेव ने जैपुर जाकर राजा विक्रमदेव (1758-81) से मित्रता कर ली। और विक्रम देव ने उसका परिचय कंपनी के जानसन और भोंसेले से मिलवाया। और तीनों ने कुछ शर्तों के आधार पर दरियावदेव की मदद करने की बात मानी। और फिर 1777 में जैपुर की सेना, कम्पनी के जानसन ने से पूर्व से और नागपुर के भोंसेल ने उत्तर दिशा से जगदलपुर को घेर लिया। परास्त होकर अजमेर सिंह को फिर डोंगर भागना पड़ा। फिर हुआ हल्बा विद्रोह जो 1774 से 79 के बीच हुआ। क्योंकि अजमेर सिंह हल्बाओं में प्रसिद्ध था । डोंगर पर आक्रमण होने के कारण हल्बा दरियावदेव से क्रोधित थे। ऐसे में अजमेर सिंह के साथ मिलकर हल्बाओं ने विद्रोह कर दिया । यही हल्बा विद्रोह के नाम से जाना जाता है।
अजमेर सिंह की मौत के बाद उसके वफादार हल्बा सेना को बड़ी ही निर्ममता से मौत के घाट उतारा गया। इतिहासकार बताते हैं कि इतना बड़ा नरसंहार इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। भौगोलिक सीमा, अनिष्चत वर्षा दुर्गम आवागमन के साधन, कृषि योग्य सीमित जमीन इस विद्रोह के मुख्य कारण थे। दरियावदेव ने हल्बाओं के विरूद्ध मराठों से मदद मागीं और बदले में उसे नागपुर के भोंसलों को 4 से 5 हजार सालाना देना पड़ा। दरियावदेव मराठों के अधीन हो गया । यानि चालुक्यों को अब मराठे चलाने लगे।
दरियावदेव ने अपने भाई के खिलाफ जो अंग्रेजों और मराठों के साथ संन्धि की उसमें वह कामयाब जरूर हुआ मगर आगे चलकर वह मराठों के हाथ की कठपुतली बन गया।
दरियावदेव ने 6 April 1778 को मराठों के साथ जो संधि की थी वह कोटपाड़ संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि में नागपुर के राजा बिम्बाजी की तरफ से त्रयम्बर अवीवराव मौजूद था। भोंसलों ने बस्तर को सैन्य सहायता दी थी इसीलिए दरियावदेव को मराठों की अधीनता माननी पड़ी। इस संधि के तहत उसे 59 हजार टोकली या नजराना देने की प्रतिज्ञापत्र पर भी उसे हस्ताक्षर करना पड़ा। कुल मिलाकर बस्तर की स्वतंत्रता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दरियावदेव को बेचना पड़ा और खरीदार थे मराठे। हांलकि नजराना मिलते रहने तक मराठों ने किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप न करने की बात कही थी मगर कोटपाड़ संधि के कारण जैपुर राज्य को कोटपाड़ परगना मिल गया । और जैपुर अंग्रेजों के अधीन था। कुल मिलाकर अंग्रेजों के अधीन था हांलाकि अंग्रेजों को बस्तर से कोई खास लेना देना नहीं था।
इस संधि के कारण बस्तर नागपुर के अधीन रतनपुर राज्य में चला गया। और तब से यह छत्तीसगढ़ का अंग बन गया।
12 मई 1795 से 28 मई तक यह बस्तर में रहा । मगर सुरक्षा की कारणों से उसे बस्तर के भीतरी भागों में आने की अनुमति नहीं मिल सकी। उसे कांकेर तक ही अपनी यात्रा कर संतुष्ट होना पड़ा। पड़ौसी राज्यों के राजाओं ने उसे सुरक्षा की द्ष्टि से बाहर रोके रखा। कैप्टन जे.टी. ब्लंट ने एक दो बाद कोषिष भी की की वह बस्तर के अंदरूनी इलाकों में भ्रमण कर सके मगर उसे आदिवासियों की तीरकमान का सामाना करना पड़ा । इस प्रकार वह अपने उद्देष्य में सफल नहीं हो सका। बस्तर में मराठों और अग्रेजों का मिश्रित राज्य किस प्रकार था जो 1819-53 तक चला । इसे समझते हैं
यह जानने के लिए हमे मराठों के अभिलेखों का सहारा मिलता है । जिसमें बस्तर को जमींदारी,सूबा, या एक प्रान्त के रूप में बताया गया है। परन्तु बस्तर के राजाओं ने मराठों की प्रभुता कभी स्वीकार नहीं की। यह 1818 तक मराठों के सामने झुका नहीं।
नए आंग्ल मराठा संधि जो नए जमींदार के साथ ब्रिटिश का हुआ था उसके तहत बस्तर की शक्ति सीमित कर दी गई । 1854 तक बस्तर में मराठा और अंग्रेजों का मिला जुला प्रभाव था।
अजमेर सिंह और उसके भाई दरियावदेव का विद्रोह
दलपत देव ने युवावस्था में ही अपने अपने पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह को ड़ोगर का उत्तराधिकारी बना दिया था। जब दलपतदेव की मृत्यु हुई तो रानी के पुत्र दरियावदेव ने अजमेर सिंह पर हमला कर दिया। दोनों के बीच भंयकर संघर्ष हुआ। और दरियावदेव को ड़ोगर छोड़कर जगदलपुर भागना पड़ा। 1774 में अजमेर सिंह बस्तर रियासत के राजा बना। उधर दरियावदेव ने जैपुर जाकर राजा विक्रमदेव (1758-81) से मित्रता कर ली। और विक्रम देव ने उसका परिचय कंपनी के जानसन और भोंसेले से मिलवाया। और तीनों ने कुछ शर्तों के आधार पर दरियावदेव की मदद करने की बात मानी। और फिर 1777 में जैपुर की सेना, कम्पनी के जानसन ने से पूर्व से और नागपुर के भोंसेल ने उत्तर दिशा से जगदलपुर को घेर लिया। परास्त होकर अजमेर सिंह को फिर डोंगर भागना पड़ा। फिर हुआ हल्बा विद्रोह जो 1774 से 79 के बीच हुआ। क्योंकि अजमेर सिंह हल्बाओं में प्रसिद्ध था । डोंगर पर आक्रमण होने के कारण हल्बा दरियावदेव से क्रोधित थे। ऐसे में अजमेर सिंह के साथ मिलकर हल्बाओं ने विद्रोह कर दिया । यही हल्बा विद्रोह के नाम से जाना जाता है।
जानते हैं क्या है वजह
अजमेर सिंह की मौत के बाद उसके वफादार हल्बा सेना को बड़ी ही निर्ममता से मौत के घाट उतारा गया। इतिहासकार बताते हैं कि इतना बड़ा नरसंहार इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। भौगोलिक सीमा, अनिष्चत वर्षा दुर्गम आवागमन के साधन, कृषि योग्य सीमित जमीन इस विद्रोह के मुख्य कारण थे। दरियावदेव ने हल्बाओं के विरूद्ध मराठों से मदद मागीं और बदले में उसे नागपुर के भोंसलों को 4 से 5 हजार सालाना देना पड़ा। दरियावदेव मराठों के अधीन हो गया । यानि चालुक्यों को अब मराठे चलाने लगे।
दरियावदेव ने अपने भाई के खिलाफ जो अंग्रेजों और मराठों के साथ संन्धि की उसमें वह कामयाब जरूर हुआ मगर आगे चलकर वह मराठों के हाथ की कठपुतली बन गया।
दरियावदेव के समय 1795 में भोपालपट्टनम में भी विद्रोह हुआ था।
दरियावदेव ने 6 April 1778 को मराठों के साथ जो संधि की थी वह कोटपाड़ संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि में नागपुर के राजा बिम्बाजी की तरफ से त्रयम्बर अवीवराव मौजूद था। भोंसलों ने बस्तर को सैन्य सहायता दी थी इसीलिए दरियावदेव को मराठों की अधीनता माननी पड़ी। इस संधि के तहत उसे 59 हजार टोकली या नजराना देने की प्रतिज्ञापत्र पर भी उसे हस्ताक्षर करना पड़ा। कुल मिलाकर बस्तर की स्वतंत्रता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दरियावदेव को बेचना पड़ा और खरीदार थे मराठे। हांलकि नजराना मिलते रहने तक मराठों ने किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप न करने की बात कही थी मगर कोटपाड़ संधि के कारण जैपुर राज्य को कोटपाड़ परगना मिल गया । और जैपुर अंग्रेजों के अधीन था। कुल मिलाकर अंग्रेजों के अधीन था हांलाकि अंग्रेजों को बस्तर से कोई खास लेना देना नहीं था।
इस संधि के कारण बस्तर नागपुर के अधीन रतनपुर राज्य में चला गया। और तब से यह छत्तीसगढ़ का अंग बन गया।
अग्रेज यात्री कैप्टन जे.टी ब्लंट का आगमन 1795
12 मई 1795 से 28 मई तक यह बस्तर में रहा । मगर सुरक्षा की कारणों से उसे बस्तर के भीतरी भागों में आने की अनुमति नहीं मिल सकी। उसे कांकेर तक ही अपनी यात्रा कर संतुष्ट होना पड़ा। पड़ौसी राज्यों के राजाओं ने उसे सुरक्षा की द्ष्टि से बाहर रोके रखा। कैप्टन जे.टी. ब्लंट ने एक दो बाद कोषिष भी की की वह बस्तर के अंदरूनी इलाकों में भ्रमण कर सके मगर उसे आदिवासियों की तीरकमान का सामाना करना पड़ा । इस प्रकार वह अपने उद्देष्य में सफल नहीं हो सका। बस्तर में मराठों और अग्रेजों का मिश्रित राज्य किस प्रकार था जो 1819-53 तक चला । इसे समझते हैं
यह जानने के लिए हमे मराठों के अभिलेखों का सहारा मिलता है । जिसमें बस्तर को जमींदारी,सूबा, या एक प्रान्त के रूप में बताया गया है। परन्तु बस्तर के राजाओं ने मराठों की प्रभुता कभी स्वीकार नहीं की। यह 1818 तक मराठों के सामने झुका नहीं।
नए आंग्ल मराठा संधि जो नए जमींदार के साथ ब्रिटिश का हुआ था उसके तहत बस्तर की शक्ति सीमित कर दी गई । 1854 तक बस्तर में मराठा और अंग्रेजों का मिला जुला प्रभाव था।