लाॅर्ड डलहौजी की हड़प नीति (Doctrine Of Lapse) से इसकी शुरूआत होती है। 1854 को नागपुर राज्य के रघुजी तृतीय की निःसंतान मौत हो गई । और उसकी मृत्यु के बाद उसका राज्य हड़प नीति के तहत ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। और नागपुर राज्य के अधीन छत्तीसगढ़ था तो बस्तर स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश सम्राज्य का अंग बन गया । 1855 में ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों से संबद्ध पुरानी सभी शर्तें मान लीं गई ।
भैरम देव (1853-91)
भूपालदेव के पुत्र भैरमदेव 13 वर्ष की आयु में महाराजा बने और महाराजा बनते ही उनका राज ब्रिटिश राज में चला गया । मगर ब्रिटिश सरकार ने भैरम देव को शासन करने का अधिकार दे दिया।
इलियट का आगमन
1856 में डिप्टी कमीश्नर मेजर चाल्र्स इलियट का बस्तर आगमन हुआ। और बस्तर के बारे में बहुमूल्य सामाग्री जुटाई । यह सामाग्री जिला कार्यालय में आज भी मौजूद है। 1854 में बस्तर ब्रिटिश राज का हिस्सा था। 1882 तक बस्तर गोदावरी जिले के डिप्टी कमीश्नर के अधीन था। जिसका मुख्यालय सिंरोचा था बाद में यह कालाहांडी में भवानी पाटणा के अधीक्षक के अधीन हो गया ।
1857 की क्रांति की सुगबुगाहट (लिगांगिरी विद्रोह)
जनजातिय विद्रोह के अध्याय से जानकारी ये मिलती है कि ब्रिटिश राज से महाराजा भैरमदेव, दीवान दलगंजनसिंह और आदिवासी जनता संतुष्ट नहीं थे। मार्च 1856 के अंत तक दक्षिण बस्तर में विरोध तेजी से हो रहा था। लिगांगिरी तालुका के तालुकदार धुर्वाराव ने अंग्रेजों के खिलाफ खुलेआम विरोध किया । उसने बस्तर के राजा भैरमदेव से भी निवेदन किया कि वह भी उनका साथ दे मगर भैरमदेव ने प्रत्यक्ष रूप से साथ तो नहीं दिया मगर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोहियों की खूब सहायता की।
कोई जाति का विद्रोह 1859
ब्रिटिश ने यहां के जंगलों का ठेका हैदराबाद के व्यापारियों को दे दिया था। ठेकेदार मालिक मकबूजा के काटे गए सागैन के वृक्षों का मूल्य भी नहीं चुकाता था। ठेकेदार बड़े निष्ठुर थे। ब्रिटिश सरकार इनके खिलाफ की गई शिकायतें बिलकुल नहीं सुनती थीं बाद में कुल मिलाकर यह विद्रोह साल के वृक्षों को काटे जाने के कारण हुआ था। जल्द ही यह विद्रोह दक्षिण के अन्य जमींदारों में फैल गया। सबसे पहले यह विद्रोह फोतकेल जमींदारी से शुरू हुआ था। इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को कोई कहा जाता था । इसीलिए इस विद्रोह का नाम कोई विद्रोह पड़ा। इन्हीं कोई जाति के आदिवासियों को आज दंडामी तथा दोर्ला कहा जाता है। यह वन संरक्षण का पहला भारतीय उदाहरण है।
भैरमदेव निःसंतान था । उसने लालकलींद्रसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जिसे कलींद्रसिंह ने उचित नहीं माना। अतः वंश वृद्धि के लिए राजा का तीसरा विवाह करना जरूरी हो गया।
कलींद्रसिंह के प्रयासों से जैपुर के मुकुछदेव की पुत्री के साथ भैरमदेव का विवाह 1883 में हुआ जिससे महाराजा रूद्रप्रताप देव का जन्म 1885 में हुआ। इस विवाह का बड़ी महारानी और युवराज कुंपरिदेवी ने विरोध भी किया था।
जब भैरम देव की मृत्यु हुई और रूद्रपताप देव बस्तर के महाराजा बने तो उसकी आयु महज 6 वर्ष की थी। ब्रिटिश ने रूद्रप्रताप की ताजपोशी स्वीकार कर ली थी। फिर भी रूद्रप्रताप के वयस्क होते तक यानि 1891 से 1908 तक बस्तर ब्रिटिश के अधीन ही था।
जब भैरम देव की मृत्यु हुई और रूद्रपताप देव बस्तर के महाराजा बने तो उसकी आयु महज 6 वर्ष की थी। ब्रिटिश ने रूद्रप्रताप की ताजपोशी स्वीकार कर ली थी। फिर भी रूद्रप्रताप के वयस्क होते तक यानि 1891 से 1908 तक बस्तर ब्रिटिश के अधीन ही था।
रूद्रप्रताप की शिक्षा दीक्षा रायपुर के राजकुमार काॅलेज में हुई । दीवान पद पर महत्वपूर्ण नियुक्तियां होती थी । भेरवदेव की मृत्यु के बाद बस्तर में दीवान पद पर आलमचन्द्र और उसके बाद उत्कल ब्राम्हण राजचन्द्रराव मिश्र दीवान बना था। फिर दो यूरोपियों को दीवान बनाया गया जिनके नाम फैगन और गेयर थे।
बस्तर में राजा के अधिकारों को संकुचित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने दीवान पद पर नियुक्ति देना शुरू कर दिया । ये दीवान को राजा आज्ञा मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते थे तथा किसी भी प्रकार की आज्ञा को पालन करवाने के लिए उच्च अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती थी।
रूद्रप्रतापदेव का राज्याभिषेक 23 वर्ष की उम्र में रूद्रप्रताप देव का राज्याभिषेक 1908 में हुआ । 16 नवम्बर 1921 को रूद्रप्रताप की मृत्यु हो गई और उसकी बेटी प्रफुल्लकुमारी देवी उत्तराधिकारी बनी। कई निर्माण कार्यो के लिए लिए जाना जाता है
रूद्रप्रतापदेव का राज्याभिषेक 23 वर्ष की उम्र में रूद्रप्रताप देव का राज्याभिषेक 1908 में हुआ । 16 नवम्बर 1921 को रूद्रप्रताप की मृत्यु हो गई और उसकी बेटी प्रफुल्लकुमारी देवी उत्तराधिकारी बनी। कई निर्माण कार्यो के लिए लिए जाना जाता है
राजा रूद्रप्रताप का दौर
रूद्रप्रताप के समय में बस्तर में कई निर्माण कार्य हुए।
- जगदलपुर शहर की नए सिरे से टाऊन प्लानिंग की गई । और इसी समय ही जगदलपुर बना चैाराहों का शहर।
- यहां कई मंदिरें बनी और सड़कों का जाल बना।
- बस्तर में शिक्षा अनिवार्य की गई रायबहादुर पाण्डा ने बैजनाथ बनों को आरक्षित किया। इन सब कार्यो में ब्रिटिश प्रशासक जो उस वक्त बस्तर में पदस्थ थे उनके योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता । इनमें एक था फैगन (1896-1903) और दूसरे था गेयर (1899 - 1903) अपने आठ वर्षों के कार्यकाल में जगदलपुर को कुछ ऐसा बनाना चाह रहे थे जिससे हर कोने से राजमहल नजर आए और इसका कुछ चिन्ह आज भी दिखता है ।
- इतिहासकार कहते हैं ये प्रशासक बर्किंघम पैलेस की शक्ल में राजमहल को दिखाना चाहते थे।
- राजा रूद्रप्रताप यूरोपिय युद्ध ब्रिटिश सरकार की बहुत मदद की थी इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने सेंट आॅफ जेरूसलम यानि जेरूसलम का मसीहा की उपाधि से उन्हें नवाजा था।
रूद्रप्रताप के समय में ही महाविप्लव हुआ जिसमें गुण्डाधुर और डेंबरी धुरने अहम भूमिका निभाई ,
गुण्डाधुर के बारे में जानने के लिए क्लिक कीजिए नीचे Link पर।
क्योंकि रूद्रप्रताप को कोई पुत्र नहीं था। प्रफुल्लकुमारी देवी का कार्यकाल 1921 से 1936 तक था। उसका विवाह 1925 में मयूरभंज के गुजारेदार प्रफुल्लचंद भंजदेव से हुआ। इस तरह बस्तर में अब चालुक्य वंश बदल गया । और भंज वंश की स्थापना हुई । चूंकि महारानी का विवाह भंजवंश में हुआ था इसीलिए आने वाला बस्तर में आने वाला वंश भंजवंश कहलाया।
घैटी पौनी स्त्री विक्रय की विचित्र प्रथा।
इस विचित्र प्रथा के तहत राजा सुड़ी, कलार, धोबी, पनरा, जाति की स्त्रियां जो विधवा या परित्यक्ता थीं उन्हें बचने का अधिकार । एक प्रथा के तहत राजा के पास था । इस प्रथा को घैंटीपोनी यानि कुटुम्ब की बहाली कहते थे। ब्रिटिश अधिकारी चैपमैन ने 1898 में अपने रिपोर्ट में इस प्रथा का जिक्र किया था। उसने लिखा था कि यह राजा की आमदनी का एक Source भी था । ये स्त्रियां अपने अपने परगने के नाम से भी जानी जाती थीं। कभी कभी कोई स्त्री अपने पति से दुव्र्यवहार करतीं थीं तो पति स्वयं उसे राजा को सौंप देता था और राजा को यह पूर्ण अधिकार था उस स्त्री को अधिक से अधिक बोली लगाने वाले को विक्रय कर सके।
भूमकाल 1910
आदिवासी जब अपने प्रति होने वाल शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए एक जुट हुए तो महाविप्लव हुआ। इस विपल्व का नेतृत्व गुण्डाधुर ने किया था।
रूद्रप्रताप की मृत्यु 16 नवम्बर 1921 में हुई । और फिर प्रजा के विशेष आग्रह पर उसकी पुत्री प्रफुल्लकुमारी देवी बस्तर की बागडोर अपने हाथ में ली। उस वक्त प्रफुल्लकुमारी देवी महज 11 वर्ष की थी। यह सत्ता ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सौंपी । और 28 फरवरी 1936 को प्रफुल्लकुमारी की मौत हो गई तो उसके पुत्र प्रवीरचंद भंजदेव राजा बने । 1947 में देश आजाद होने के बाद 1948 में भारतीय संध में बस्तर का विलय हो गया।
रूद्रप्रताप की मृत्यु 16 नवम्बर 1921 में हुई । और फिर प्रजा के विशेष आग्रह पर उसकी पुत्री प्रफुल्लकुमारी देवी बस्तर की बागडोर अपने हाथ में ली। उस वक्त प्रफुल्लकुमारी देवी महज 11 वर्ष की थी। यह सत्ता ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सौंपी । और 28 फरवरी 1936 को प्रफुल्लकुमारी की मौत हो गई तो उसके पुत्र प्रवीरचंद भंजदेव राजा बने । 1947 में देश आजाद होने के बाद 1948 में भारतीय संध में बस्तर का विलय हो गया।
बस्तर की प्रथम महिला शासिका का एक परिचय ( जन्म 1910)
प्रफुल्लकुमारी देवी 12 वर्ष की आयु 1922 में बस्तर की रानी बनी जिसे अंग्रेज सरकार ने भी मान्यता दी। मयुर भंज महाराज के भतीजे प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव से उनका विवाह 1927 को हुआ। प्रसिद्ध पत्रिका दी इंडियन वूमनहुड ने बस्तर की पहली महारानी का जिक्र किया था।
निजामीस्तान विरोध
ब्रिटिश सरकार की नितियों ने बस्तर को जब निजामीस्तान बनाने का प्रस्ताव रखा तो महारानी ने इसका विरोध किया। इससे ब्रिटिश सरकार नाराज होकर महारानी को परेशान करने लगी। उन्हें उनके बच्चों से दूर रखा गया उनका उन पर सारे अधिकार स्थगित कर दिए गए। महारानी को अपेंडीसायटिस के Operation के लिए लंदन भेजा गया जहाँ उनकी मौत हो गई। इतिहास कार मानते हैं कि उनकी मौत षडयंत्र का नतीजा था। 26 वर्ष की अल्पायु (1936) में महारानी के देंहात के बाद उसके पति प्रवीर चंद्र भंजदेव राजा बने ।
और फिर बस्तर के महाराजा बने प्रवीर चंद्र भंजदेव