परलकोट विद्रोह
यह एक ऐसा विद्रोह था अबूझमाड़िया ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें शोषण न हो । यह मूलतः अग्रेजों और मराठों के प्रति बदले की भावना से पैदा हुआ था। इस विद्रोह का नेतृत्व परलकोट का जमींदार गेंदसिंह कर रहा था । यह विद्रोह चांदा से अबुझमाड़ की पट्टियों में चला था। यह विद्रोह आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों यानि तीर-धनुष से लड़ रहे थे और और मराठे तथा अग्रेज बंदूकों से । बंदूकों के आगे आदिवासियों के हथियार बेमानी हो गए और यह विद्रोह दबा दिया गया। यह घटना परलकोट विद्रोह कहलाता है। यह विद्रोह 1825 में हुआ।
महिपाल देव की भूमिका
नागपुर के राजा भीकाजी गोपाल (1809-17)की नाराजगी काफी अहम भूमिका निभाती है। बस्तर के महाराजा जो उस दौर में थे वे थे महिपालदेव और उसका पुत्र दरियावदेव -दोनों ने ही कोटपाड़ संधि में तय की गई ष्षर्तों को मानने से मना कर दिया यानि मराठा की अधीनता को अस्वीकार कर दिया, इस प्रकार दोनों ने नागपुर के राजा भीकाजी गोपाल को वार्षिक नजराना या टकोली देने से मना कर दिया जो कोटपाड़ संधि में तय किए गए थे। जाहिर है ऐसे में मराठों का नाराज होना लाजमि था। हद तो तब हो गई जब महिपाल देव ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया और रतनपुर के भोंसले शासक नानासाहिब या व्यंकोजी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया कि बस्तर अब भोंसले लुटेरों की अधीनता अस्वीकार करता है। व्यंकोजी इससे तिलमिला गया और उसने अपने ताकतवर मुसाहिब रामचंद्र बाघ को बस्तर को सबक सिखाने के लिए आदेश दिया ।
बस्तर में आक्रमण
एक दिन कांकेर में अचानक मराठों का आक्रमण हुआ वहां का राजा पराजित होकर एक गाँव में शरण ली । और अब रामचंद्र बाघ ने जगदलपुर में हमला किया । और किले पर अपना अधिकार कर लिया मगर बाद में महिपाल देव ने आदिवासियों को पुनः संगठित किया और किला मराठों से छिन लिया और रामचंद्र बाघ अपने सैनिकों के साथ जंगल की तरफ भाग गया । मगर बाद में रायपुर और रतनपुर से ज्यादा संख्या में भोंसले सैनिकों को बुलाया और जगदलपुर में धावा बोल दिया। इस बार आदिवासियों की सेना पराजित हुई और महिपाल देव को पुनः सत्यनिष्ठ वचन देना पड़ा। और महिपालदेव को सिहावा परगना नागपुर शासन के अधीन करना पड़ा क्योंकि अनेक सालों तक नजराना का बकाया था
भूपालदेव
महिपालदेव के दो पुत्र थे एक का नाम था दलगंजन सिंह और भूपालदेव । मगर दोनों भाई सौतेले थे। महिपालदेव की मौत के बाद भूपालदेव ने 26 साल की उम्र में राजा बना । यह बात 1842 की है और दलगंजनसिंह को तारापुर परगने का अधिकारी बना दिया गया। मगर दलगंजनसिंह अपने परक्रम और सदाचरण के कारण आदिवासियों में लोकप्रिय था । दोनों सौतेले भाईयों में संघर्ष होता रहता था।
बस्तर में नरबली का अंत
अंग्रेजों के आदेश पर मराठा शासन ने जब भूपाल देव पर अभियोग चलाया तो भूपाल देव ने इस प्रकार किसी भी प्रथा को चलन के प्रति अनभिज्ञता प्रगट की और कहा कि इस प्रकार अगर कोई प्रथा है तो उसे समाप्त कर दिया जाएगा।
ब्लण्ड, एगन्यू तथा जेन्किन्स के यात्रा वृतांत में कहा गया है कि दंतेवाड़ा में शंखनी-डंकनी नदी के संगम में नरबली की प्रथा विद्यमान है। उड़िसा के गुमसर और कालाहंडी के क्षेत्र में 1842 में अंग्रेजों ने बंद करा दिया था।
टकोली के बाद यह पहला अवसर था जब मराठों ने सीधे राजकाज में हस्तक्षेप किया । मैकफर्सन नाम के अधिकारी इन क्षेत्रों में नरबलि की जांच के लिए नियुक्त किए गए थे। मैकफर्सन ने अपने रिपोर्ट में लिखा है कि ताड़ी पेन्नु यनि माटीदेव की पूजा में नरबलि दी जाती है । इसे यहाँ की जनजाति एक सार्वजनिक उत्सव आयोजित कर नरबलि देती है। यह आयोजन एक खास अवधि में ही होता है। जब किसी रोग या बिमारी के कारण अकाल मृत्यु की संख्या बढ़ जाती थी या जनजाति मुखिया के परिवार में कोई अनहोनी हाती थी तो नरबलि की प्रथा थी। बलि देने वालों को मेरिया कहते थे।
तारापुर विद्रोह
आदिवासी विद्रोह नामक किताब में परकोट और तारापुर विद्रोह का उल्लेख है। नागपुर सरकार के आदेष में जब टकोली बढ़ा दी गई थी तो तारापुर के अधिकारी दलगंजनसिंह ने इसका विरोध किया था। जब सरकार का दबाव बढ़ा दलगंजनसिंह ने जनता को लूटने के बजाय तारापुर छोड़कर जैपुर जाने का विचार किया। मगर जनता के कहने पर आंग्ल-मराठा के खिलाफ दलगंजनसिंह ने बगावत कर दिया।
मेरिया विद्रोह
दंतेवाड़ा की आदिम जनजातियों ने यह विद्रोह अंग्रेजों और मराठों के खिलाफ किया था। आदिवासियों ने यह विद्रोह उनके पराम्पराओं पर होने वाले आक्रमण के खिलाफ था। जिसे विदेशी घुसपैठ बर्बाद कर रहे थे। यह 1842 से 63 के बीच हुआ था।
बस्तर इतिहास के प्रमुख विद्रोह
पूरे बस्तर के इतिहास पर गौर करें तो हर राजाओं के शासन काल में विद्रोह या सशस्त्र विद्रोह हुआ है । कुछ तो अंग्रेजों के खिलाफ थे जिसे आदिवासी जनता का पूरा समर्थन मिला था। और कुछ विद्रोह तो आपसी झगड़े और सिंहासन हथियाने के लिए थे,
जानते हैं 1774 से लेकर 1910 तक के विद्रोहों के बारे में जिनके नाम इतिहास में दर्ज हैं उनके बारे में मै जल्द ही विवरण पूरा दूँगा। हांलाकि बहुत कुछ लड़ाईयों के बारे में बता चुका हूँ
- हल्बा जाति का विद्रोह सबसे पहल 1774 में हुआ था।
- भोपालपट्नम संघर्ष जो 1795 में हुआ
- तारापुर विद्रोह 1842-54 के बीच चला
- मेरिया विद्रोह ये भी 1842 से 63 तक चला
- महान् मुक्ति संगा्रम यानि लिंगागिरी विद्रोह ये विद्रोह 1856-से 57 में हुआ। ये भारत की स्वाधीनता संग्राम का एक अंश था जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा गया था तत्कालीन राजा भैरम देव ने अप्रत्यक्ष रूप से जनता की मदद की थी
- कोई जाति का विद्राह ये विद्रोह 1859 को हुआ अंग्रेजों द्वारा बस्तर में साल वृक्ष काटे जाने के खिलाफ था।
- और मुरिया विद्रोह जो 1876 में हुआ ये भी अंग्रेजों के खिलाफ हुआ था
- भूमकाल का संग्राम जिसमें शहीद गुण्डाधुर ने अग्रहणी भूमिका निभाई थी । ये 1910 में हुआ था
झाड़ा सिरहा
मुरिया आदिवासी विद्रोह 1876 ई. में झाड़ा सिरहा के नेतृत्व में मुरिया आदिवासियों द्वारा किया गया। यह विद्रोह शोषणमूलक नीति के विरोध में था, इसे श्1876 का विरोधश् भी कहा जाता है।
बस्तर के राजा भैरमदेव को ब्रिटिश शासन की तरफ से दिल्ली जाने का आदेश मिला, लेकिन मुरिया आदिवासियों ने उनका घेराव कर के उन्हें दिल्ली न जाने की प्राथना की। उनका अंदेशा था कि उनके अनुपातीथी में उन पर अत्याचार किया जायेगा। स्थिति बिगड़ते देख दीवान गोपीनाथ ने भीड़ पर गोली चलवा दी जिसमे कुछ लोग मारे गए। राजा बस्तर लौटने को विवश हो गया।
दीवान गोपीनाथ ने दमन चक्र चलना आरम्भ कर दिया। मुरिया आदिवासियों झाड़ा सिरहा के नेतृत्व में विरोध करने का निश्चय किया। आरापुर नमक स्थान पर विद्रोही इकट्ठा हुए। राजा स्वयं उन्हें शांत करने के उद्देश्य से आरापुर पंहुचा। लेकिन कोई हल नहीं निकल पाया। विद्रोहियों ने राजा के सैनिको पर हमला बोल दिया। विद्रोहियों ने हथियार डाल दिया और आरापुर से पलायन कर गए।
2 मार्च 1876 ई. को मुरिया आदिवासियों झाड़ा सिरहा के नेतृत्व में राज महल का घेराव कर दिया। राजा ने ब्रिटिश अधिकारियों से मदद मांगी। डिप्टी कमिश्नर ने मैक जार्ज के नेतृत्व में सेना भेजी। मैक जार्ज को विद्रोहियों से पता चला की विद्रोहियों की लड़ाई राजा से नहीं बल्कि दीवान और मुंशी से है। 8 अप्रैल 1876 ई. में एक आम सभा में मैक जार्ज ने विरोधियो की मांगे मान ली और मुरिया विद्रोह समाप्त हुआ।