खिज्र खां ने सैय्यद वंश की स्थापना की थी। यह वंश 1414 से 1451 तक चला । इस वंश के शासकों ने कोई खास काम नहीं किया इसीलिए इसके बारे में इतिहासकार ज्यादा कुछ नहीं बताते रहें । अंत में सैय्यद वंश के अंतिम शासक अलाउददीन ने बहलोल लोदी को दिल्ली सल्तनत सौंप दिया और खुद बदायुं चला गया ।
वह पहला अफगान सुल्तान था। उसने भारत में अफगानियों की ताकत मजबूत करने के लिए रोह के अफगानों को भारत बुलाया । उसकी अधिंकाश ताकत केवल शर्की के शासकों से लड़ते -लड़ते खत्म हुई । बहलोल अपने सरदारों को ‘मसनद-ए-अली’ कहता था। बहलोल लोदी का राजत्व सिद्धान्त समानता पर आधारित था। वह अफगान सरदारों को अपने समकक्ष मानता था। वह अपने सरदारों के खड़े रहने पर खुद भी खड़ा रहता था।
बहलोल लोदी ने ‘बहलोली सिक्के’ का प्रचलन करवाया, जो अकबर के समय तक उत्तर भारत में विनिमय का प्रमुख साधन बना रहा। बहलोल लोदी धार्मिक रूप से सहिष्णु था। उसके सरदारों में कई प्रतिष्ठित सरदार हिन्दू थे। इनमें रायप्रताप सिंह, रायकरन सिंह, रायनर सिंह, राय त्रिलोकचकचन्द्र और राय दांदू प्रमुख हैं। वह दूरदर्शी था, उसके समय में मंगोल के आक्रमण के भय था इसीलिए उसने अपने बड़े लड़के मुहम्मद खाँ को सुल्तान का हाकिम बना दिया और खुद भी वह सीमा पर पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका अंदेशा सही निकला । मंगोलों का पहला आक्रमण 1478 में हुआ उसके बेटे ने मंगोलों को पीछे खदेड़ दिया । 1485 में मंगोलो ने पुनः आक्रमण किया इस बार की लड़ाई में मुहम्मद खाँ मारा गया । बेटे की मौत से उसे गहरा धक्का लगा। और बेटे के गम में बहलोल लोदी की भी मौत हो गई । उस वक्त उसकी आयु 80 वर्ष की थी।
उसने अफगान सरदारों को दबाने की कोषिष की । सुल्तान बनते ही उसने अपने विरोधियों को दबाना षुरू कर दिया उसने आलम खाँ, ईसा खाँ, अपना भतीजा हुमायु खाँ को परास्त किया । साथ ही जालरा के सरदार तातर खाँ और जौनपुर के सरदार बारबक षाह को भी परास्त किया
1494 अपने बड़े भाई के खिलाफ एक अभियान चलाकर उसने बिहार और दिल्ली को एक कर दिया । तिरहुत के षासक को हराया ।
राजपुतों में ग्वालियर को छोड़कर धौलपुर, मन्दरेल, उतागिरी,नरवर,नागौर को भी जीता। अपनी मृत्यु के समय बहलोल लोदी ने अपने रिष्ते दारों और सरदारों को राज्य बांट दिया था उसे बड़ी मेहनत के बाद लोदी ने उनसे छीन लिया। और सल्तनत को एक कर दिया।
गले की एक बिमारी के कारण 21 नवम्बर 1517 को उसकी मौत हो गई।
वह उलेमाओं और मुस्लिमों के प्रति उदार बना रहा मगर हिन्दुओं के प्रति बहुत ही कट्टर था। मंदिरों को तुड़वाकर उसने उसकी जगह मस्जिदें बनवायी। 1506 में उसने नया अगरा शहर बसाया और अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा बनायी।
सिकन्दर लोदी स्वयं एक बहुत बड़ा विद्वान था। तथा वह विद्वानों को खूब संरक्षण देता था। उसने विद्वानों और दार्शनिकों को बड़े-बड़े अनुदान दिए। उसके दरबार में अरब ईरान से कई विद्वान आया करते थे। सिकन्दर लोदी के समय में कई संस्कृत ग्रंथ फारसी भाषा में अनुवाद हुए। उसके आदेश पर संस्कृत के एक आयुर्वेद ग्रंथ का फारसी में ‘फरहंगे सिकन्दरी’ के नाम से अनुवाद हुआ। उसका उपनाम ‘गुलरुखी’ था। इसी उपनाम से वह कविताएँ लिखा करता था। उसने संगीत के एक ग्रन्थ ‘लज्जत-ए-सिकन्दरशाही’ की भी रचना की।
प्रत्येक रात्रि को 70 विद्वान उसके पलंग के नीचे बैठकर विभिन्न प्रकार की चर्चा किया करते थे। उसने मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का स्वरूप प्रदान करके उन्हें शिक्षा का केन्द्र बनाने का प्रयत्न किया था। मुस्लिम शिक्षा में सुधार करने के लिए उसने तुलम्बा के विद्वान शेख़ अब्दुल्लाह और शेख़ अजीजुल्लाह को बुलाया था। उसके शासनकाल में हिन्दू भी बड़ी संख्या में फारसी सीखने लगे थे और उन्हें उच्च पदों पर रखा गया था।
इब्राहिम लोदी और मेवाड़ के षासक राणा सांगा के बीच हुई लड़ाई में लोदी हार गया । राणा सांगा ने चंदरी पर अपना अधिकार कर लिया मगर इस युद्ध में राणा सांगा के बायें हाथ नहीं रहे।
उसने अपने भाई जलाल खाँ को राज्य का विभाजन कर के उसे जौनपुर का षासक बना दिया। परन्तु बाद में जौनपुर को अपने राज्य में मिला लिया ।
इसके बाद उसने आजम हुमायु षेरवानी को ग्वालियर हमला करने भेजा । ग्वालियर के तत्कालीन राजा विक्रम जीत सिंह ने उसकी आधीनता स्वीकार कर ली।
इब्राहिम लोदी और उसके सरदारों के बीच युद्ध होते रहते थे। पंजाब के षासक दौलत खाँ लोदी और इब्राहिम के चाचा आलम खाँ ने काबुल के शासक बाबर को भारत आक्रमण के लिए आमंत्रित किया । बाबर ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और बाबर भारत आक्रमण के लिए आया । 21 अप्रेल 1526 को बाबर और इब्राहिम लोदी की सेना की बीच भंयकर युद्ध हुआ । जिसमें इब्राहिम लोदी की हार हुई और बाबर ने इब्राहिम लोदी को मारकर दिल्ली सिंहासन पर सुन्तान बन गया । इस तरह लोदी वंष समाप्त हो गया और मुगल वंष की स्थापना हुई जिसमें कई ष्षासक हुए जो बादषाह कहलाए जिनमें अकबर, हुमायु और शाहजहां प्रमुख थे। औरंगजेब इस वंष का अंतिम शासक था जिसकी मृत्यु 1707 में हुई ।
बहलोल लोदी (1451-1489)
बहलोन लोदी ने 1451 में लोदी वंश (Lodhy Dynasty) की स्थापना की । बहलोल बड़ा ही कुशल प्रशासक और सेनानी था। वह अपने आपको सुल्तान नहीं कहता था। उसने दिल्ली पर जमींदार की तरह ही शासन किया । रईसों को खुश करने के लिए वह अक्सर कहा करता था कि वह उनमें से ही है । वह कोई सुल्तान नहीं है। वह कभी भी सिंहासन पर नहीं बैठता था। उसने दोआब में होने वाले विद्रोह को दबाया । जौनपुर तथा अन्य राज्यों को उसने अपनी सल्तनत में जोड़ा । उसकी सल्तनत पंजाब से लेकर बिहार के कुछ हिस्से तक फैली थी । वह बड़ा ही धार्मिक प्रवृति का था।वह पहला अफगान सुल्तान था। उसने भारत में अफगानियों की ताकत मजबूत करने के लिए रोह के अफगानों को भारत बुलाया । उसकी अधिंकाश ताकत केवल शर्की के शासकों से लड़ते -लड़ते खत्म हुई । बहलोल अपने सरदारों को ‘मसनद-ए-अली’ कहता था। बहलोल लोदी का राजत्व सिद्धान्त समानता पर आधारित था। वह अफगान सरदारों को अपने समकक्ष मानता था। वह अपने सरदारों के खड़े रहने पर खुद भी खड़ा रहता था।
बहलोल लोदी ने ‘बहलोली सिक्के’ का प्रचलन करवाया, जो अकबर के समय तक उत्तर भारत में विनिमय का प्रमुख साधन बना रहा। बहलोल लोदी धार्मिक रूप से सहिष्णु था। उसके सरदारों में कई प्रतिष्ठित सरदार हिन्दू थे। इनमें रायप्रताप सिंह, रायकरन सिंह, रायनर सिंह, राय त्रिलोकचकचन्द्र और राय दांदू प्रमुख हैं। वह दूरदर्शी था, उसके समय में मंगोल के आक्रमण के भय था इसीलिए उसने अपने बड़े लड़के मुहम्मद खाँ को सुल्तान का हाकिम बना दिया और खुद भी वह सीमा पर पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका अंदेशा सही निकला । मंगोलों का पहला आक्रमण 1478 में हुआ उसके बेटे ने मंगोलों को पीछे खदेड़ दिया । 1485 में मंगोलो ने पुनः आक्रमण किया इस बार की लड़ाई में मुहम्मद खाँ मारा गया । बेटे की मौत से उसे गहरा धक्का लगा। और बेटे के गम में बहलोल लोदी की भी मौत हो गई । उस वक्त उसकी आयु 80 वर्ष की थी।
सिकंदर लोदी (1489-1517)
यह बहलोल लोदी का बेटा था। उसका असली नाम निजाम खाँन था। यह जुलाई 17, 1489 को सुल्तान बना । उसने सुल्तान सिंकदंर शाह की उपाधि मिली थी। वह धार्मिक दृष्टि से असहिष्ण था। उसकी माँ हिन्दु थी जो पेषे से स्वर्ण कार घराने की थी।उसने अफगान सरदारों को दबाने की कोषिष की । सुल्तान बनते ही उसने अपने विरोधियों को दबाना षुरू कर दिया उसने आलम खाँ, ईसा खाँ, अपना भतीजा हुमायु खाँ को परास्त किया । साथ ही जालरा के सरदार तातर खाँ और जौनपुर के सरदार बारबक षाह को भी परास्त किया
1494 अपने बड़े भाई के खिलाफ एक अभियान चलाकर उसने बिहार और दिल्ली को एक कर दिया । तिरहुत के षासक को हराया ।
राजपुतों में ग्वालियर को छोड़कर धौलपुर, मन्दरेल, उतागिरी,नरवर,नागौर को भी जीता। अपनी मृत्यु के समय बहलोल लोदी ने अपने रिष्ते दारों और सरदारों को राज्य बांट दिया था उसे बड़ी मेहनत के बाद लोदी ने उनसे छीन लिया। और सल्तनत को एक कर दिया।
गले की एक बिमारी के कारण 21 नवम्बर 1517 को उसकी मौत हो गई।
वह उलेमाओं और मुस्लिमों के प्रति उदार बना रहा मगर हिन्दुओं के प्रति बहुत ही कट्टर था। मंदिरों को तुड़वाकर उसने उसकी जगह मस्जिदें बनवायी। 1506 में उसने नया अगरा शहर बसाया और अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा बनायी।
सिकन्दर लोदी स्वयं एक बहुत बड़ा विद्वान था। तथा वह विद्वानों को खूब संरक्षण देता था। उसने विद्वानों और दार्शनिकों को बड़े-बड़े अनुदान दिए। उसके दरबार में अरब ईरान से कई विद्वान आया करते थे। सिकन्दर लोदी के समय में कई संस्कृत ग्रंथ फारसी भाषा में अनुवाद हुए। उसके आदेश पर संस्कृत के एक आयुर्वेद ग्रंथ का फारसी में ‘फरहंगे सिकन्दरी’ के नाम से अनुवाद हुआ। उसका उपनाम ‘गुलरुखी’ था। इसी उपनाम से वह कविताएँ लिखा करता था। उसने संगीत के एक ग्रन्थ ‘लज्जत-ए-सिकन्दरशाही’ की भी रचना की।
प्रत्येक रात्रि को 70 विद्वान उसके पलंग के नीचे बैठकर विभिन्न प्रकार की चर्चा किया करते थे। उसने मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का स्वरूप प्रदान करके उन्हें शिक्षा का केन्द्र बनाने का प्रयत्न किया था। मुस्लिम शिक्षा में सुधार करने के लिए उसने तुलम्बा के विद्वान शेख़ अब्दुल्लाह और शेख़ अजीजुल्लाह को बुलाया था। उसके शासनकाल में हिन्दू भी बड़ी संख्या में फारसी सीखने लगे थे और उन्हें उच्च पदों पर रखा गया था।
इब्राहिम लोदी (1517-1526)
लोदी वंष का अंतिम षासक इब्राहिम लोदी था। इसके बाद 1526 बाबर भारत आया और इब्राहिम लोदी को मार कर मुगल वंष की स्थापना की । बात करते हैं इब्राहिम लोदी के बारे में । 21 नवम्बर 1517 में इब्राहिम लोदी आगरा की सिंहासन पर बैठा । वह सिकंदर लोदी का बेटा था। अफगान सरदारों के प्रति अपनाए गए कड़े नीतियों के कारण वह उनका दुष्मन बन गया । उसने राजपूतों से ग्वालियर छीन लिया ।इब्राहिम लोदी और मेवाड़ के षासक राणा सांगा के बीच हुई लड़ाई में लोदी हार गया । राणा सांगा ने चंदरी पर अपना अधिकार कर लिया मगर इस युद्ध में राणा सांगा के बायें हाथ नहीं रहे।
उसने अपने भाई जलाल खाँ को राज्य का विभाजन कर के उसे जौनपुर का षासक बना दिया। परन्तु बाद में जौनपुर को अपने राज्य में मिला लिया ।
इसके बाद उसने आजम हुमायु षेरवानी को ग्वालियर हमला करने भेजा । ग्वालियर के तत्कालीन राजा विक्रम जीत सिंह ने उसकी आधीनता स्वीकार कर ली।
इब्राहिम लोदी और उसके सरदारों के बीच युद्ध होते रहते थे। पंजाब के षासक दौलत खाँ लोदी और इब्राहिम के चाचा आलम खाँ ने काबुल के शासक बाबर को भारत आक्रमण के लिए आमंत्रित किया । बाबर ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और बाबर भारत आक्रमण के लिए आया । 21 अप्रेल 1526 को बाबर और इब्राहिम लोदी की सेना की बीच भंयकर युद्ध हुआ । जिसमें इब्राहिम लोदी की हार हुई और बाबर ने इब्राहिम लोदी को मारकर दिल्ली सिंहासन पर सुन्तान बन गया । इस तरह लोदी वंष समाप्त हो गया और मुगल वंष की स्थापना हुई जिसमें कई ष्षासक हुए जो बादषाह कहलाए जिनमें अकबर, हुमायु और शाहजहां प्रमुख थे। औरंगजेब इस वंष का अंतिम शासक था जिसकी मृत्यु 1707 में हुई ।