महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाईन ने कहा था आने वाली को ये यकीन नहीं होगा कि गांधी जी जैसा कोई हाड़ मांस का पुतला इस धरती पर रहा होगा।’
अगर हम भारतीय राजनीति में गौर करें तो यह बात समझ में आती है सभी नेता और कार्यकर्ता किसी न किसी पद पर कबिज थे या बाद में कोई न कोई पद हासिल कर पाए। मगर गांधी जी ऐसे युग पुरूष थे जिन्होंने न कोई पद हासिल किया न ही किसी पद की आजीवन लालसा रही । फिर उनमें ऐसी क्यां बात थी जिसने उन्हें विश्व में प्रसिद्धी दिलाई । इन्ही बातों पर चर्चा करते हैं ।
Gandhiji in South Africa |
ये घटना उस वक्त की है जब वे महात्मा गांधी के तौर पर प्रसिद्ध नहीं थे वे अफी्रका में वकालत करने के दौरान एक केस लड़ने के लिए अफ्रीका गए थे ।
जीवन का वह टर्निग पाईंट
इंग्लैण्ड से वे वकालत कर भारत आए और मुबंई (तब बम्बई) में अपनी वकालत की पै्रक्टिस करते रहे। उस समय उनकी उम्र 22 साल की थी। इस दौरान उन्होने महसूस किया कि इस business में उन्हें अपने सिद्धांतो से समझौता करना पड़ रहा है। अतः यह पेशा उन्हें रास नहीं आ रहा था। जब वे मुम्बई में खास कुछ नहीं कर सके तो वापस राजकोट लौट गए। और वहाँ मुकदमा लड़ने वालों के लिए आवेदन लिखने का कार्य करने लगे। बाद में एक अंग्रेज अधिकारी सैम सनी से झगड़े की वजह से उन्हें ये काम भी छोड़ना पड़ा। इस तरह वकालत का पेशा उन्हें किसी भी तरह से रास नहीं आया। इस बीच दक्षिण अफ्रीका की एक शिपिंग कम्पनी के मालिक शेख अब्दुल्ला के बुलावे पर अफ्रीका गए। वहाँ भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के दुव्र्यवहार को काफी करीब से देखा ।
- अपनी आत्म कथा सत्य के प्रयोग में गांधी जी स्वयं बताते हैं कि किस तरह उन्हें एक बार भारतीय होने की वजह से किराए की गाड़ी में भी ड्राईवर के पास जमीन पर बैठने के लिए मना किया तो उन्हें जम कर पीटा गया ।
- फिर एक घर के पास गुजरने के कारण उन्हें गटर में गिरा दिया गया अपराध ये था कि वे अंग्रेज नहीं थे।
- इसी तरह पीट्सबर्ग स्टेशन में वे First Class पर यात्रा कर रहे थे साथ अंग्रेज को ये बात नागवार गुजरी उसने कहा कि पीछे के डिब्बे में जाओ गांधी जी ने मना किया तो उन्हें स्टेशन पर सामान के साथ फेंक दिया गया।
बस यही घटना गांधी जी के जीवन में एक नया मोड़ लेकर आई और उन्होंने विरोध करने की ठानी। यह बात जून 1893 की है।
तो फिर क्या हुआ?
उन्होने Natal Indian Congress की स्थापना की और भारतीय को एक राजनीतिक ताकत बनाने लगे। जल्द ही अफ्रीका में बसे भारतीयों की ताकत बढ़ने लगी। और वे एक शक्तिशाली संगठन के रूप में ऊभरे । और अफ्रीका में उनके केस के समाप्ति तक यानि 1894 तक वे अफ्रीका में बसे भारतीयों हीरो बन चुके थे । ये खबर भारतीयों को भी तब तक लग चुकी थी। भारत में कांग्रेस को एक ऐसे ही नेतृत्व की तलाश थी जो अंग्रेजों से लोहा ले सके। अफ्रीका में गांधी जी की लड़ाई अग्रेजों के उस कानून के विरोध में थी जिसके तहत अष्वेतों को यानि भारतीयों को टैक्स देना होता था।
इस लड़ाई को गांधी जी ने सत्याग्रह का नाम दिया था । सत्याग्रह यानि सत्य के प्रति आग्रह । इस तरह गांधीजी जो एक केस के सिलसिले में वहाँ गए थे और अपने जीवन का 22 साल उन्होंने अफ्रीक में बसे भारतीयों के लिए लड़ते गुजार चुके थे । उनकी लड़ाई सफल हुई और ब्रिटिष सरकार को वहाँ वह कानून बंद करना पड़ा।
अब गांधीजी की दूसरी पारी की शरूआत हो रही थी । जब अफ्रीका में हालात सुधर चुके थे तो भारत में स्थिति ठीक उल्टी थी । यहाँ कांग्रेस अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था और गांधीजी को लगा कि अब अपने वतन के लिए भी कुछ करना चाहिए! गोपाल कृष्ण गोखले कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में थे । उनके निवेदन पर गांधीजी 1915 में भारत आए। गोखले ने भारतीय राजनीति और परिदृष्य से गांधीजी का परिचय कराया और अंग्रेजों के खिलाफ उठाए गए कदमों की जानकारी दी ।
गांधीजी गोपाल कृष्ण गोखले को इसीलिए अपना राजनीतिक गुरू मानते थे।
भारत आते ही गांधीजी ने पूरे देष का दौरा किया ताकि मौजूदा हालात को वे भांप सकें। इस बीच चंपारण में किसानों को नील उत्पादन में मजबूर किए जाने की बात निकली। नील का प्रयोग कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता था। First Word War के दौरान जर्मनी की हालत पतली हो चुकी थी और सिन्थेटिक डाई में मंदी आने से इस प्रकार के डाई की मांग बढ़ी अंग्रेजों के लिए यह काफी मुनाफे वाला नगदी फसल था। हालांकि चम्पारण वह इलाका था जहाँ कांग्रेस को कोई पहचानता नहीं था।
1917 का चम्पारन आंदोलन में योगदान
यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नील की खेती के फरमान को रद्द करने में सफल साबित हुआ बल्कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह वाले असरदार तरीके के साथ भारत के पहले ऐतिहासिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के तौर पर भी सफल साबित हुआ।
चम्पारण आंदोलन के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक कीजिए नीचे दिए गए लिंक पर
चम्पारण में गांधीजी की पहली सत्याग्रह
असहयोग आंदोलनः
दिसम्बर 1920 को नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में इस आंदोलन की शुरूआत हुई । यह चम्पारण के बाद दूसरा जन आंदोलन था जिसमें गांधी जी ने अपने सत्य और अहिंसा के बूते ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार से सहयोग न करने की अपील लोगों से की । उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार के साथ सभी ऐच्छिक संबंधो के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा। अपने संघर्ष का और विस्तार करते हुए उन्होंने खिलाफत आन्दोलन के साथ हाथ मिला लिए जो हाल ही में तुर्की शासक कमाल अतातुर्क द्वारा समाप्त किए गए सर्व-इस्लामवाद के प्रतीक खलीफा की पुनर्स्थापना की माँग कर रहा था।
ये गांधीजी के नेतृत्व गुण ही था उनके विचारों से जनता सहमत हो गई और उनके साथ हो गई, और ब्रिटिश सरकार के लिए भी यह सोचनीय विषय था किस प्रकार इस हथियार का मुकाबला करें। क्योंकि British सरकार के पास अंहिसा के हथियार को कोई तोड़ नहीं था।
यह असहयोग आंदोलन इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोगों ने अपनी नौकरियां छोड़ दी । जो ब्रिटिश सरकार के नुमाईदे थे उन्होने हर कानून के प्रति असहयोग करने की ठानी । यह पूरी तरह से अंहिसात्मक आंदोलन था मगर 1922 में उत्तर प्रदेश के Chauri -Chaura में हुए हिंसक घटना के कारण गांधीजी ने स्वयं यह आंदोलन स्थगित कर दिया ।
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सविनय अवज्ञा आंदोलन
सविनय अवज्ञा का मतलब है बड़े ही आदर भाव से किसी को मना करना जिसमें हिंसा का भाव, न हों। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन (1929 ई.) में घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है। महात्मा गांधी ने अपनी इस माँग पर जोर देने के लिए 6 अप्रैल, 1930 ई. को सविनय अविज्ञा आन्दोलन छेड़ा। जिसका उद्देश्य कुछ विशिष्ट प्रकार के गैर कानूनी कार्य सामूहिक रूप से करके ब्रिटिश सरकार को झुका देना था। शुरूआत दांड़ी में नमक बनाकर की गई । अंग्रेजों ने जब नमक पर टैक्स लगाया तो इसका विरोध करने की ठानी और गुजरात के 242 किमी की लम्बी पैदल यात्रा कर गांधी जी ने स्वयं नमक बनाकर कानून का सार्वजनिक अवज्ञा की ।
भारत छोड़ो आंदोलन
अंग्रेजों के समक्ष वे हालात पैदा कर दिए गए जिनसे मजबूर होकर उन्हें भारत छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं था। किप्स मिषन भारत में असफल हो गया तो अंग्रेजों की पकड़ कम पड़ गई । इसी अवसर का फायदा उठाते हुए गांधीजी 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की शरूआत कर दी । इसका फैसला कांग्रेस के मुम्बई (तब बम्बाई) अधिवेषन में किया गया ।
अब अंग्रेजों को यह बताने का समय आ गया था कि भारत अपनी सुरक्षा स्वयं ही करेगा और साम्राज्यवाद तथा फाँसीवाद के विरुद्ध रहेगा। मगर इसके लिए अंग्रेज भारत छोड़ना ही होगा भारत अपना सरकार स्वयं बनाने में सक्षम है ।
गांधीजी एक दर्शन
- गाँधीजी ने विश्व को वह हथियार दिया जिसे अंहिसा कहते है । उन्होने अहिंसा की नई परिभाषा दी। बिना किसी हथियार, खून खराबे के ब्रिटिश राज को जो चुनौतियां उन्होंने दी उससे स्वयं ब्रिटिश भी हैरान थे।
- उनके मूल सिद्धांतों को हम यू समझ सकते हैं कि अगर आप संगठन के बनाए कानून नहीं मानेगें तो वे आप पर शासन नहीं कर पाएंगे । क्योंकि संगठन आप से है । आप संगठन पर निर्भर नहीं ।
- अंहिसा का ऐसा हथियार दिया जिसका ब्रिटिश हूकूमत के पास कोई तोड़ नहीं था। सरकार ने नियम बनाए गांधी जी ने उसे अस्वीकार किया । अंग्रेजों ने भारत की अर्थ व्यवस्था पर गहरी चोट की इसके लिए यहाँ मौजूद कुटीर उद्योगों को अंग्रेजों ने प्रारम्भ से ही कुचलना शुरू कर दिया था।
- इसी लिए गांधी जी ने खादी पर जोर दिया और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार पर, इससे उनका व्यापार न हो सके । यही बात नमक सत्याग्रह पर भी लागू होती है। क्योंकि सरकार ने नमक पर जो कर लगाया था उससे उसकी आमदनी होने वाली थी जिसे गांधी जी ने खत्म कर दिया।
ऐसी ही चंद बातें थी जो उनको अब तक चली आ रही संर्घष के तरीकों से अलग ही थी। इन्हीं संघषों के तरीकों को अपनाकर नेल्सन मंडेला ने आगे चलकर रंगभेद नीति के खिलाफ जंग लड़ा ।