जिसका उद्देश्य कुछ विशिष्ट प्रकार के गैर कानूनी कार्य सामूहिक रूप से करके ब्रिटिश सरकार को झुका देना था। शुरूआत दांड़ी में नमक बनाकर की गई । अंग्रेजों ने जब नमक पर टैक्स लगाया तो इसका विरोध करने की ठानी और गुजरात के 242 किमी की लम्बी पैदल यात्रा कर गांधी जी
ने स्वयं नमक बनाकर कानून का सार्वजनिक अवज्ञा की ।
गांधीजी ने भारत में तीन बड़े आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ चलाए थे। वे थे असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन
इससे पहले मैने असहायोग आंदोलन की बात की थी। अब बात करते है सविनय अवज्ञा आंदोलन की । सविनय अवज्ञा का मतलब है बड़े ही आदर भाव से किसी को मना करना जिसमें हिंसा का भाव, न हों। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन (1929 ई.) में घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है। महात्मा गांधी ने अपनी इस माँग पर जोर देने के लिए 6 अप्रैल, 1930 ई. को सविनय अविज्ञा आन्दोलन छेड़ा।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का कार्यक्रम
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के अंतर्गत चलाये जाने वाले कार्यक्रम निम्नलिखित थे-
नमक कानून का उल्लघंन कर स्वयं द्वारा नमक बनाया जाए।
सरकारी सेवाओं, शिक्षा केन्द्रों एवं उपाधियों का बहिष्कार किया जाए।
महिलाएँ स्वयं शराब, अफीम एवं विदेशी कपड़े की दुकानों पर जाकर धरना दें।
समस्त विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए उन्हें जला दिया जाए।
कर अदायगी को रोका जाए।
कानून तोड़ने की नीति
कानून को जानबूझ कर तोड़ने की इस नीति का कार्यान्वयन औपचारिक रूप से उस समय हुआ, जब महात्मा गांधी ने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से समुद्र तट पर स्थित डांडी नामक स्थान तक कूच किया और वहाँ पर लागू नमक कानून को तोड़ा। लिबरलों और मुसलमानों के बहुत वर्ग ने इस आन्दोलन में भाग नहीं लिया। किन्तु देश का सामान्य जन इस आन्दोलन में कूद पड़ा। हजारों नर-नारी और आबाल-वृद्ध कानूनों को तोड़ने के लिए सड़कों पर आ गए। सम्पूर्ण देश गम्भीर रूप से आन्दोलित हो उठा।
गांधी जी की चिंता
ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाये और गांधी जी सहित अनेक कांग्रेसी नेताओं व उनके समर्थकों को जेल में डाल दिया। आन्दोलनकारियों और सरकारी सिपाहियों के बीच जगह-जगह जबर्दस्त संघर्ष हुए। शोलापुर जैसे स्थानों पर औद्योगिक उपद्रव और कानपुर जैसे नगरों में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। हिंसा के इस विस्फोट से गांधी जी चिन्तित हो उठे। वे आन्दोलन को बिल्कुल अहिंसक ढंग से चलाना चाहते थे।
गाँधी-इरविन समझौता
सरकार ने भी गांधी जी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया और वाइसराय लॉर्ड इरविन और गांधी जी के बीच सीधी बातचीत का आयोजन करके समझौते की अभिलाषा प्रकट की। गांधी जी और लॉर्ड इरविन में समझौता हुआ, जिसके अंतर्गत सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया गया। हिंसा के दोषी लोगों को छोड़कर आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी बन्दियों को रिहा कर दिया गया और कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में भाग लेने को सहमत हो गई।
गाँधी जी की आलोचना
इस समझौते को गाँधी जी ने अत्यन्त महत्व दिया, परन्तु जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाषचन्द्र बोस ने यह कहकर मृदु आलोचना की कि गाँधी जी ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को बिना ध्यान में रखे ही समझौता कर लिया। के.एम. मुंशी ने इस समझौते को भारत के सांविधानिक इतिहास में एक युग प्रवर्तक घटना कहा। युवा कांग्रेसी इस समझौते से इसलिए असंतुष्ट थे, क्योंकि गाँधी जी तीनों क्रान्तिकारियों भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फाँसी के फंदे से नहीं बचा सके। इन तीनों को 23 मार्च, 1931 ई. को फाँसी पर लटका दिया गया था।
गाँधी जी को कांग्रेस में वामपंथी युवाओं की तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा। बड़ी कठिनाई से इस समझौते को कांग्रेस ने स्वीकार किया। कांग्रेस के श्कराची अधिवेशनश् में युवाओं ने गाँधी जी को श्काले झण्डेश् दिखाये। इस अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की। गाँधी-इरविन समझौते के स्वीकार किये जाने के साथ-साथ इसी अधिवेशन में मौलिक अधिकार और कर्तव्य शीर्षक प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया। इसी समय गाँधी जी ने कहा था कि ष्गाँधी मर सकते हैं, परन्तु गाँधीवाद नहीं।
भारतीयों की निराशा
गोलमेज सम्मेलन का यह अधिवेशन भारतीयों के लिए निराशा के साथ समाप्त हुआ। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद तीन हफ्तों के अन्दर ही गांधी जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया गया और कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस कार्यवाही से 1932 ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर से भड़क उठा। आन्दोलन में भाग लेने के लिए हजारों लोग फिर से निकल पड़े, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के इस दूसरे चरण को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया। आन्दोलन तो कुचल दिया गया, लेकिन उसके पीछे छिपी विद्रोह की भावना जीवित रही, जो 1942 ई. में तीसरी बार फिर से भड़क उठी।
हिंसक प्रदर्शन
इस बार गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध श्भारत छोड़ो आन्दोलनश् छेड़ा। सरकार ने फिर ताकत का इस्तेमाल किया और गांधी जी सहित कांग्रेस कार्यसमिति के सभी सदस्यों को क़द कर लिया। इसके विरोध में देश भर में तोड़फोड़ और हिंसक आन्दोलन भड़क उठा। सरकार ने गोलियाँ बरसाईं, सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हो गई। यह आन्दोलन फिर से दबा दिया गया, लेकिन इस बार यह निष्फल नहीं हुआ। इसने ब्रिटिश सरकार को यह दिखा दिया कि भारत की जनता अब उसकी सत्ता को ठुकराने और उसकी अवज्ञा के लिए कमर कस चुकी है और उस पर काबू पाना अब मुश्किल है।
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