शिवरात्रि के बाद होली आती है । इस त्यौहार में महौल हुड़दंग और मौज मस्ती का होता है तो दूसरी तरफ शिवरात्रि में लोग भक्ति मय होते है। मार्च का महिना शुरू होने के साथ गर्मीयों की शुरूआत हो जाती है फिर शरीर में नीरसता हावी होने लगती है। शरीर को चुस्त दुरस्त करने के लिए और नीरसता भगाने के लिए हुड़दंग या जोश के माहौल की जरूरत पड़ती है और शायद इसीलिए होली का त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन ढोल नगाड़े की थाप पर हुड़दंग मचाते
Holi |
जानते हैं क्यों और कैसे इसकी शुरूआत हुई होगी?
पहले इसे पौराणिक घटनाओं से जोड़कर देखते हैं। सबसे पहले तो भक्त प्रहलाद की कहानी का स्मरण आता है।
भगवत पुराण में होली त्यौहार मनाए जाने को लेकर एक कथा है। जिसके अनुसार राक्षस राजा हिरणकश्यपु जिसे एक ऐसा वरदान मिला था कि उसे कोई हरा नहीं सकता था। और न ही उसे कोई मार सकता था। इस वरदान के कारण उसे इतना घमंड हो गया कि स्वयं को वह भगवान कहलाने लगा। और लोगों को मजबूर करने लगा कि उसकी लोग पूजा करें । उसका प्रताड़ना काफी बड़ चुकी थी । फिर एक दैवी योजना अनुसार हिरणकश्यपु के घर एक बेटे ने जन्म लिया जिसका नाम प्रहलाद था। मगर वह अपने पिता के विपरित भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था । वह रक्षस कुल में पैदा हुआ था। हिरणकश्यपु को यह बात अच्छी नहीं लगती थी कि प्रहलाद रक्षसों के बजाय विष्णु की पूजा करे तो उसने उसे बहुत समझाया मगर प्रहलाद नहीं माना । प्रहलाद को मनाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई तो हिरणकश्यपु ने प्रहलाद की भक्ति की शक्ति को परखने की बात कही । प्रहलाद ने कहा अगर मेरी भक्ति में ताकत है आग भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । हिरणकश्यपु ने सोचा यह अच्छा अवसर है प्रहलाद से छुटकारा पाने का । तब उसने अपनी बेटी होलिका का सहारा लिया । होलिका को यह वरदान था कि उसे आग नहीं जला सकती थी । होलिका ने कहा कि वह प्रहलाद के साथ आग पर बैठेगी तो प्रहलाद जल जाएगा होलिका ने ठीक वैसा ही किया मगर उल्टा हुआ- प्रहलाद तो सुरक्षित रह गया लेकिन आग में जलकर खाक हो गई। तब से होलिका दहन की परंपरा चल पड़ी है जिसमें बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में होलिक का दहन किया जात है और प्रहलाद के बचने और ईश्वर भक्ति के रूप में अगले दिन रंग गुलाल लोग एक दूसरे को लगाकर होली मनाते हैं ।
भगवत पुराण में होली त्यौहार मनाए जाने को लेकर एक कथा है। जिसके अनुसार राक्षस राजा हिरणकश्यपु जिसे एक ऐसा वरदान मिला था कि उसे कोई हरा नहीं सकता था। और न ही उसे कोई मार सकता था। इस वरदान के कारण उसे इतना घमंड हो गया कि स्वयं को वह भगवान कहलाने लगा। और लोगों को मजबूर करने लगा कि उसकी लोग पूजा करें । उसका प्रताड़ना काफी बड़ चुकी थी । फिर एक दैवी योजना अनुसार हिरणकश्यपु के घर एक बेटे ने जन्म लिया जिसका नाम प्रहलाद था। मगर वह अपने पिता के विपरित भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था । वह रक्षस कुल में पैदा हुआ था। हिरणकश्यपु को यह बात अच्छी नहीं लगती थी कि प्रहलाद रक्षसों के बजाय विष्णु की पूजा करे तो उसने उसे बहुत समझाया मगर प्रहलाद नहीं माना । प्रहलाद को मनाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई तो हिरणकश्यपु ने प्रहलाद की भक्ति की शक्ति को परखने की बात कही । प्रहलाद ने कहा अगर मेरी भक्ति में ताकत है आग भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । हिरणकश्यपु ने सोचा यह अच्छा अवसर है प्रहलाद से छुटकारा पाने का । तब उसने अपनी बेटी होलिका का सहारा लिया । होलिका को यह वरदान था कि उसे आग नहीं जला सकती थी । होलिका ने कहा कि वह प्रहलाद के साथ आग पर बैठेगी तो प्रहलाद जल जाएगा होलिका ने ठीक वैसा ही किया मगर उल्टा हुआ- प्रहलाद तो सुरक्षित रह गया लेकिन आग में जलकर खाक हो गई। तब से होलिका दहन की परंपरा चल पड़ी है जिसमें बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में होलिक का दहन किया जात है और प्रहलाद के बचने और ईश्वर भक्ति के रूप में अगले दिन रंग गुलाल लोग एक दूसरे को लगाकर होली मनाते हैं ।
दूसरी कथा
इतना ही नहीं होली को लेकर एक और पौराणिक कथा प्रचलित है जिसमें कृष्ण का शरीर जब पुतना के विष प्रभाव से नीला पड़ गया था तो कृष्ण न सोचा कि राधा व उसके साथ नीले रंग के शरीर वाले के साथ खेलेंगे या नहीं , तो मां यशोदा ने उपाया बताया और कहा कि साथियों को भी रंगों से रंग दो तो सब एक जैसे हो जाएंगे । और कृष्ण ने ठीक वैसा ही किया । इस प्रकार यह खेल होली का खेल बन गया ।
और एक और कथा जो राधा-कृष्ण के प्रेम से ही जुड़ी है वो है लठ्ठ मार होली
क्या है लठ्ठ मार होली ?
यह उत्तर प्रदेश के मथुरा में स्थित बरसाना और नंद गांव में खास तौर पर मनाई जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदगांव वे बरसान में जब कृष्ण राधा से मिलने बरसाना गांव पहुँचे वे राधा और उसकी सहेलियों को चिढ़ाने लगे । जिसके कारण राधा और उसकी सहेलियों ने कृष्णा को लाठी से मारने कर अपने से दूर करने लगी। और तब से इन दोनों गांव में लाठ्ठ मार होली का चलन हो गया ।
Lattha Maar Holi |
यह परम्परा आज भी मौजूद है । नंदगांव के युवक बरसाना जाते है तो खेल के विरोध स्वरूप वहां की महिलाएं लाठी से उन्हें भगाती है और युवक बचने का प्रयास करते है। अगर वे पकड़े जाते हैं तो उन्हें महिलओं की वेश भूषा में नृत्य करवाया जाता है । इस प्रकार लठ्ठमार होली मनायी जाती है। इस होली का आनंद लेने लोग देश विदेश से यहां आते हैं ।
लठ्ठमार होली कुछ सप्ताह तक यहां चलती है जिसमें लोग नाचते गाते एक दूसरे को रंगों से सराबोर कर मनाते हैं ।
इस अवसर पर परम्परागत व्यंजन गुजिया, ठंडाई पिलाई जाती हैं ।
चलिए कुछ और बात करते है बस्तर की होली के बारे में -पहली होली दंतेवाड़ा के सती शिला के सामने जलाई जाती है फिर माड़पाल में होली होती है जिसे दंतेवाड़ा की होली के बाद ही जलाया जाता है। उसके बाद जगदलपुर में मावली माता देवी मंदिर के सामने होली जलाई जाती है । और उसकी आग माड़पाल से लायी जाती है। महाराजा पुरूषोत्तम देव के सम्मान में दो होली इस अंचल में होती है। यह होली महाराजा के रथपति उपाधि पाने की खुषी में मनाई जाती है।
इस अवसर पर परम्परागत व्यंजन गुजिया, ठंडाई पिलाई जाती हैं ।
बस्तर में माड़पाल होली
बस्तर दशहरा के बाद बस्तर की होली जो ग्राम माड़पाल में मनाई जाती है - उसका अपना इतिहास व कारण है। बस्तर में माड़पाल नामक गाँव में जो होली मनायी जाती है उसकी कहानी ही अलग है । कहते हैं बस्तर महाराजा पुररूषोत्तम देव रथपति की उपाधि मिलने के बाद माड़ापाल पहुँचे तो होलिका दहन की परम्परा को निभाया जाता है । यह परम्परा बस्तर में 611 साल पुरानी है।जानिए बस्तर दशहरा के विभिन्न रस्मों के बारे में । क्लिक कीजिए लिंक पर
बस्तर दशहरा
होली का उद्देश्य ही है कि नीरसकता को दूर करना। जो मार्च के आगमन पर होने लगता है। और लोग अपने आप में एक स्फूर्ति का अनुभव करते हैं । मगर इतना तो अवश्य है इस त्यौहार के चलते लोग एक दूसरे से मिलकर खुशियां बांटते है और मेल-मिलाप का दौर चलता है। आखिर यही तो है त्यौहारों का असली मकसद