गीदम से 20 किमी दूर बाणासुर की नगरी थी जिसे एक राजधानी का दर्जा प्राप्त था। फिर कालांतर में एचवीडीसी विद्युत परियोजना को लेकर यह सुर्खियों में आयी। जिसके अवशेष अब भी देखने को मिलते हैं। बस्तर दर्शन और बस्तर भूषण जैसे फेसबुक पेज पर बस्तर की अकूत प्राकृतिक संपदा की जानकारी है। जिसे पढ़कर नागवंशीय बारसूर की जानकारी मुझे मिली है। यहां एक तरफ सात धार नाम जलधारा है तो दूसरी तरफ पुराने स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने देर्शाते मंदिर भी हैं । हम बात कर रहें है बारसूर के बारे में जो छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले आता है। आईए बात करते हैं यहाँ के मंदिरों के बारे में
पर्यटक जब भी बारसूर आते है तो यहां 10 वीं सदी में बने मंदिरों को निहारने अवष्य आते हैं जिनमें मामा भांजा का मंदिर, विषालकाय गणेष प्रतिमा तो है ही साथ यह स्थित है बारसूर का बत्तीसा मंदिर ।
गणेश मंदिर
बस्तर में नागवंशीय शासनकाल में दंतेवाड़ा, भैरमगढ़ और बारसूर कला के केन्द्र थे । बात करते हैं बारसूर के विशाल गणेश प्रतिमा की । यह मूर्ति 1060 ई में नागराजा जयदेव भूषण के काल में महामंडलेश्वर चन्द्रादित्य के द्वारा बनवाए गए मंन्दिर में लगी अनेक मूर्तियों में से एक है । छत्तीसगढ़ में यह विशालकाय प्रतीमा पुरातत्व के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। वैसे ही भैरमगढ़ में हरिहरहिरण्गर्भ पितामह की एक श्रेष्ठ मूर्ति है। जगदलपुर के संग्रहालय में इस काल की मूर्तियाँ सुरक्षित एवं संग्रहित हैं। अन्नमदेव द्वारा निर्मित 14 शताब्दि में बनी मूर्ति जो महिषासुरमर्दिनी दर्शाती है । काफी महत्वपूर्ण है।मंदिर की एक झलक
बारसूर के संयुक्त मंडप के इस मंदिर की खासियत यह है कि इसमें दो गर्भगृह है। और इसी लिए बारसूर का बत्तीसा मंदिर बस्तर के सभी मंदिरों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। बारसूर नाग वंषीय प्राचीन मंदिरों के लिये पुरे छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है। यहां के मंदिरों की स्थापत्य कला बस्तर के अन्य मंदिरों से श्रेष्ठ है। ये मंदिर नागर शैली में बनाया गए हैं ।
वीर सोमेश्वर एवं गंगाधरेश्वर नामक दो शिवालयों का संयुक्त मंडप वाला यह मंदिर..बारसूर का बत्तीसा मंदिर........कहलाता है। मध्य भारत में बने प्राय सभी मंदिर नागर शैली में बनाए गए हैं । जानते हैं क्या है नागर शैली?
नागर शैली
वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान यह है कि यह आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होती है। विकसित नागर मंदिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।
नागर शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निमार्ण होने के कारण इन्हे नागर की संज्ञा प्रदान की गई। शिल्पशास्त्र के अनुसार नागर मंदिरों के आठ प्रमुख अंग हैं वे इस प्रकार होेते हैं
(१) मूल आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
(२) मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग
(३) जंघा - दीवारें (विशेषकर गर्भगृह की दीवारें)
(४) कपोत - कार्निस
(५) शिखर - मंदिर का शीर्ष भाग अथवा गर्भगृह का उपरी भाग
(६) ग्रीवा - शिखर का ऊपरी भाग
(७) वर्तुलाकार आमलक - शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का भाग
(८) कलश - शिखर का शीर्षभाग
नागर शैली का क्षेत्र उत्तर भारत में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक है। परंतु यह कहीं-कहीं अपनी सीमाओं से आगे भी विस्तारित हो गयी है। नागर शैली के मंदिरों में योजना तथा ऊॅंचाई को मापदंड रखा गया है। नागर वास्तुकला में वर्गाकार योजना के आरंभ होते ही दोनों कोनों पर कुछ उभरा हुआ भाग प्रकट हो जाता है जिसे अस्त कहते हैं। इसमें चांड़ी समतल छत से उठती हुई शिखा की प्रधानता पाई जाती है। यह शिखा कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् विकसित हुई अर्थात परमार शासकों ने वास्तुकला के क्षेत्र में नागर शैली को प्रधानता देते हुए इस क्षेत्र में नागर शैली के मंदिर बनवाये।
बत्तीसा मंदिर बारसूर की विशेषताएं
बत्तीसा मंदिर में दो गर्भगृह , अंतराल एवं संयुक्त मंडप है। यह मंदिर पुरे बस्तर का एकमात्र मंदिर है जिसमें दो गर्भगृह एवं संयुक्त मंडप है।
मंडप बत्तीस पाषाण स्तंभों पर आधारित है जिसके कारण इसे बत्तीसा मंदिर कहा जाता है। मंडप में प्रवेश करने के लिये तीनों दिशाओ में द्वार है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जो कि तीन फूट उंची जगती पर निर्मित है। मंदिर में दो आयताकार गर्भगृह है। दोनो गर्भगृह में जलहरी युक्त शिवलिंग है। शिवलिंग त्रिरथ शैली में है। शिवलिंग की जलहरी को पकड़ पुरी तरह से घुमाया जा सकता है।
गर्भगृहों के दोनो द्वार शाखाओं के ललाट बिंब में गणेशजी का अंकन है। दोनो गर्भगृहों के सामने एक एक नंदी स्थापित है। प्रस्तर निर्मित नंदी की प्रतिमायें बेहद अलंकृत है। मंदिर के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ है। मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है। अवशिष्ट शिखर पर द्रविड़ कला का प्रभाव दिखाई देता है।
मंदिर का शिखर शिव मंदिर गुमड़पाल के शिखर के भांति रहा होगा। मंदिर की दिवारें बेहद सादी है जिस पर किसी प्रकार का कोई अंकन या प्रतिमाये जड़ी हुयी नही है। यह मंदिर पुरी तरह से ध्वस्त हो चुका था , पुरातत्व विभाग द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया है।
शिलालेख क्या कहता है?
इस मंदिर से एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। शिलालेख के अनुसार सोमेश्वरदेव की पटट राजमहिशी गंगामहादेवी द्वारा दो शिव मंदिरो का निर्माण कराया जिसमें एक शिवालय अपने पति सोमेश्वरदेव के नाम पर वीर सोमेश्ववरा एवं दुसरा शिवालय स्वयं के नाम पर अर्थात गंगाधरेश्वरा के नाम से जाना जाता है। इस शिलालेख के अनुसार दिन रविवार फाल्गुन शुक्ल द्वादश शक संवत 1130 जिसके अनुसार 1209 ई होता है।
मंदिर के खर्च एवं रखरखाव के लिये केरामरूका ग्राम दान में दिया गया था। इस कार्य में मंत्री मांडलिक सोमराज, सचिव दामोदर नायक, मेंटमा नायक , चंचना पेगाड़ा, द्वारपाल सोमीनायक, गुडापुरऐरपा रेडडी, विलुचुदला प्रभु, प्रकोटा कोमा नायक गवाह के रूप में उपस्थित थे। यह शिलालेख वर्तमान में नागपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।
और कहाँ कहाँ है इस शैली के मंदिर
इस शैली के मंदिर मुख्यतः मध्य भारत में पाए जाते है जैसे -
कंदरिया महादेव मंदिर (खजुराहो) लिंगराज मंदिर - भुवनेश्वर (ओड़िसा )
जगन्नाथ मंदिर - पुरी (ओड़िसा )
कोणार्क का सूर्य मंदिर - कोणार्क (ओड़िसा )
मुक्तेश्वर मंदिर - (ओड़िसा )
खजुराहो के मंदिर - मध्य प्रदेश
दिलवाडा के मंदिर - आबू पर्वत (राजस्थान )
सोमनाथ मंदिर - सोमनाथ (गुजरात)
मंदिरों की स्थापत्य शैली
द्रविड़ शैली
द्रविड़ शैली दक्षिण भारतीय हिन्दू स्थापत्य कला की तीन में से एक शैली है। यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु व निकटवर्ती क्षेत्रों के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के होते हैं।
इस शैली में मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार गोपुरम कहलाता है। प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है।
पैगोडा शैली
पैगोडा शैली नेपाल और इण्डोनेशिया का बाली टापू में प्रचलित हिन्दू मंदिर स्थापत्य है। यह शैली में छतौं का शृंखला अनुलम्बित रूप में एक के उपर दुसरा रहता है। अधिकांश गर्भगृह भूतल स्तर में रहता है। परन्तु कुछ मन्दिर (उदाहरण काठमांडौ का आकाश भैरव और भीमसेनस्थान मन्दिर) में गर्भगृह दुसरा मंजिल में स्थापित है। कुछ मन्दिर का गर्भगृह समुचित स्थल में निर्मित होते है (उदाहरणर भक्तपुर का न्यातपोल मन्दिर), जो भूस्थल से करिबन ३-४ मंजिल के ऊँचाई पर स्थित होते है। इस शैली में निर्मित प्रसिद्ध मन्दिर में नेपाल का पशुपतिनाथ, बाली का पुरा बेसाकि आदि प्रमुख है।