गाथा संघर्ष से शिखर तक :
जगदलपुर से अगर आप गीदम जाने वाली सड़क पर निकलें तो महज 10 किमी दूर डिमरापाल मेडिकल काॅलेज के पास आपको माता रूकमणी सेवा संस्थान दिख जाएगा। यह आश्रम आचार्य विनोभा भावे की पे्ररणा से संचालित है जिसकी स्थापना 11 अक्टूबर 1976 को धर्मपाल सैनी ने की ।
Padmshri Dharmpal Saini with Ashram children |
जिन्हें भारत सरकार ने 1992 में उनके शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए पद्श्री से नवाजा । आज सैनी जी 90 दशक पार कर चुके है। काम करने का जोश व जुनून आज भी वैसा ही है ।विनोभा भावे के विचारों से प्रभावित होकर बस्तर में बालिका शिक्षा पर काम करने की सोची । इसकी स्थापना में आई दिक्कतों को आज सैनी भले ही एक कहानी की शक्ल में बताते है। मगर उनकी बातों को सुनकर ये अंदाजा लगाना बड़ा ही सरल है कि उन्हें कितनी दिक्कतें आयीं होगी ? वे बताते है जब वे आदिम जाति कल्याण विभाग से 80 सीट वाली एक छात्रावास के लिए आवेदन किया तो अधिकारी ने कहा था " 8 छात्र भी आ गए तो मै बधाई दूँगा! "
वहीं उस वक्त गांव के सरपंच ने कहा था कि लड़कियों का पढ़़ाता कौन है? आज पूरे बस्तर में माता रूक्मणी के 36 आश्रम चल रहें है और 3000 छात्राएं शिक्षा प्राप्त कर रहीं है । वे सभी गरीब और अभावग्रस्त परिवारों से हैं।
आज सैनी जी हँस कर कहते है कि केवल 4 छात्राएं एकत्रित करने में 3 महिना का समय लग गया ।
एक बालिका आश्रम खोलने में खास तौर पर उस दौर में जब लड़कियों को स्कूल भेजने का बस्तर में रिवाज ही नहीं था आज सुनने में बड़ा अजीब लगता है। निःसंदेह बस्तर में उन्होंने स्त्रिी-शिक्षा की बुनियाद रखी ।
धर्मपाल सैनी ,जिन्हें प्यार से लोग ताऊ जी कहते हैं।
फिर परिवर्तन कैसे आया?
सैनी जी ने बताया कि तीन महिने गुजर जाने के बाद जब कोई बात नहीं बनी तो माता रूकमणी संस्थान में हमने श्रम दान कर सेवा करने की ठानी जिसका असर जादू की तरह दिखा। गांव वाले जो पहले दूर भागते थे आए और बोले कि मेहनत कराओगे तो हम लड़कियों को भेजेंगे। फिर वे गांव वालों की तरह गांव वालों की बीच रहने लगे । उन्हीं की तरह वे रहन सहन अपनाकर रहने लगे और धीरे धीरे आश्रम की गतिविधियां जैसे प्रार्थना, श्रमदान सफाई, पढ़ाई लिखाई, बिमारों की सेवा, प्रभात फेरी, नृत्य गायन, अभिनय इत्यादि ने अद्भुत असर दिखाया। आश्रम की शिक्षा की बदौलत कुछ महिनों में ही बालिकाओं में आए बदलाव ने ग्रामीणों के मन में घर कर लिया।
With Ashram Children |
इसी तरह तीज त्योहार जैसे गणेश स्थापना और रक्षा बंधन ने एक दूसरे को बहुत करीब ला दिया और हम एक दूसरे को भली-भांति समझने लग गए । जिन्हें गरीब और पिछड़ा समझा जाता रहा वे बालिकाएं ही समाज को बदलने के कबिल हो गयीं और इस तरह से शुरू हुआ बस्तर के दूर-दराज क्षेत्रों से आश्रम में बालिकाओं के आने का सिलसिला।
राष्ट्रीय मंच पर पहचान ऐसे बनी:-
बाधाओं की बीच तरह तरह की आलोचनाओं के बीच वक्त गुजराता रहा । धर्मपाल सैनी कहते है कि हम सकारात्मक पहलओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए अपना काम करते रहे।
- सन 1979 में अंतराष्ट्रीय बाल वर्ष का आयोजन हुआ । आश्रम की छात्राओं को उज्जैन भेजा गया । उनकी नृत्य कला या यूं कहें कि बस्तर की नृत्य कला इस पूरे आयोजन का प्रमुख आकृषण केन्द्र बना। छात्राएं काफी लोकप्रिय हो गयीं । जाहिर है छात्राओं के लिए भी यह प्रवास पहली बार हुआ था वे पहली दफे अपने गांव से बाहर आयीं थीं ।
- उनके इंदौर के कपड़ा मिलों मे लेकर गए तो विज्ञान का चमत्कार और आधुनिक शहरी जीवन की चकाचैध देखी।
- कस्तुरीग्राम की गोपालन और खेती से उन्हें नया सीखने को मिला जिसका ज्ञान उन्होने अपने माताओं को दिया और उन्नत खेती की नयी परिभाषा सीखने को मिली।
- और उनमें नयी ऊर्जा का संचार तब हुआ जब महापुरूषों का सत्संग में विनोबा भावे जी के ब्रम्ह विद्या मंदिर में 2-3 दिन गुजारे।
फिर
- महाराष्ट्र की खेती और किसान उनके प्रेरणास्रोत बने।
- सच है शैक्षणिक प्रवास से कई जानकारियां नयी मिलती है। इस प्रवास का बाद बालिकाओं के परिवार हमारे साथ स्वास्थ्य के अलावा कई बातों में साथ हो लिये ।
- इस बीच हमें कृषि विज्ञान शिविर आयोजित करने का अवसर मिला । इस आयोजन ने हमे आर्थिक जीवन में प्रवेश कराया।
1985 में हमारी छात्रा मंबल को कब्बडी, और डिस्क थ्रो में गुवाहटी और त्रिपुरा के राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लिया और फिर शरू हुई इन खेलों में बस्तर की बालिकाओं की विजय यात्रा। हमारे छात्र एथलेटिक्स, तीरंदाजी, कराटे, वेटलिंफटिंग, जूडो, कुश्ती, वालीबाॅल, throw-ball, हैण्डबाॅल, फुटबाॅल इत्यादि खेलों में अपना जौहर दिखाते देष के विभिन्ने हिस्सों में जाने लगे । उन्हें अच्छा एक्पोजर मिलने लगा।
आश्रम की शरूआत दिनों की याद करते हुए सैनी जी कहते है कि संस्था ने शिक्षा को एक आंदोलन के रूप में अपनाया और लोगों में जागृति पैदा करने की कोशिश की । 1976 के दशक में लोग सड़कों के आस पास रहना तो दूर सड़क बनने पर दूर भागना उचित समझते थे। हमने आश्रमों से खूब प्रचार-प्रसार किया कि सड़कों से भागो नहीं उनके आस-पास ही बसो। फिर यह भी बताया कि जमीन बेचने की लिए नहीं कमाने के लिए हैं । ये सब संभव हो पाया शिक्षा के विकास के चलते ।
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उन दिनों एक अवधारण यह बनी कि आश्रम की बालिकाएं खेलने में हीरो और पढ़ने में जीरो - यह भी हमारे लिए चुनौती रही। हमने बालिकाओं में आत्मविश्वास जागाया और कहा कि खेलकूद में प्रथम आ सकते हो तो पढ़ाई में क्यों नहीं ? दोनों में ही मेहनत लगती है । और हमारी छात्राएं मेहनत से पीछे नहीं हटती। इस बात ने चमत्कार किया ।
आज 10 वीं 12 की बोर्ड परीक्षाओं में छात्राएं 84 प्रतिशत अंक ला रहीं है। इतना ही नहीं अंग्रेजी,हिन्दी संस्कृत भाषा में विशेष योग्यता के अंक पाना भी एक उपलब्धि है।
कुछ बातें जो कबिले गौर है:-
नक्सली इलाके बस्तर में 90 वर्षीय धर्मपाल सैनी 43 साल से आदिवासी लड़कियों को स्कूल तक लाने की मुहिम में जुटे हैं। इसके लिए उन्हें 1992 में पद्मश्री से भी नवाजा गया। लेकिन, फिर उन्हें लगा कि सिर्फ पढ़ाई से हालात नहीं सुधर सकते, इसलिए उन्होंने 2004 से लड़कियों के साथ लड़कों को भी खिलाड़ी बनाना शुरू कर दिया।
नतीजतन 15 साल में अब तक 3 हजार खिलाड़ी नेशनल चैंपियन बन चुके हैं।
एक हादसे में कंधे की हड्डियां टूटने और रीढ़ में गंभीर चोट के बावजूद धर्मपाल रोजाना खिलाड़ियों को ट्रेनिंग देते हैं। उनके साथ दौड़ लगाते हैं। एथलेटिक्स, तीरंदाजी, कबड्डी और फुटबॉल सिखाते हैं।
मूलतरू मध्यप्रदेश के धार निवासी धर्मपाल 1951 में कॉलेज में एथलीट और वॉलीबॉल खिलाड़ी थे। जब वे 8वीं क्लास में थे, तब उन्होंने बस्तर की लड़कियों की बहादुरी की कहानियां पढ़ीं। फिर ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद वे बस्तर आकर लड़कियों की शिक्षा पर काम करने लगे। 1976 में यहां दो आश्रम खोले गए। अब यहां 37 आश्रम हैं। इसमें 21 लड़कियों के हैं। सभी के लिए खेल जरूरी है। इसीलिए मेडल आ रहे हैं।
प्राइज से घर बनाए, पशु खरीदे, खर्च भी उठा रहीं
धर्मपाल की स्टूडेंट ललिता कश्यप ने इनाम में 8 लाख रुपए जीते। इस पैसे से घर बनवाया, स्कूटी खरीदी और बड़ी बहन की शादी का खर्च उठाया। इसी तरह कारी कश्यप ने तीरंदाजी में सिल्वर मेडल जीता। इनाम के पैसों से घर का खर्च उठा रही हैं। दिव्या ने घर बनवाया और परिवार को गाय-बैल भी खरीदकर दिए। कृतिका पोयाम ने भी पशु खरीदे। इसी तरह सैकड़ों लड़कियां अपना खर्च खुद उठा रही हैं।
यहां के बच्चे नेचुरल एथलीट है, वे इंटरनेशनल मेडल भी जीतेंगे
एक सपना और.....
वे कहते हैं यहां के सभी बच्चे मेहनती तो हैं ही, लेकिन खास बात यह है कि इन बच्चों में एथलेटिक्स का नेचुरल टैलेंट है। स्टेट और नेशनल गेम्स में यहां के खिलाड़ी चैंपियन बन रहे हैं। अगर एक अच्छी एकेडमी खोली जाती है तो यहां से हमें अच्छे इंटरनेशनल खिलाड़ी मिलने लगेंगे। यहां पर एकेडमी को लेकर प्रयास चल रहे हैं।
इसकी बुनियाद में गांधी विचार है कि सेवा करने में कभी हार नहीं मानूंगा !
पद्मश्री सैनी जी आज भी दमखम से शिक्षा की ज्योति जला रहें है ।