हर भारतीय फिल्म कलाकार की ये इच्छा होती है कि उसे दादा साहाब फाल्के पुरस्कार मिले। और जिसे वह पुरस्कार दिया जाता है उसकी पूरी ज़िदगी की तपस्या फिल्म निर्माण, अभिनय या गायन में होती है। यह पुस्कार एक प्रयास होता है जिसके चलते उस कलाकार को यथोचित सम्मान मिल सके। दादा साहब फाल्के अवार्ड का गठन 1970 में किया गया था। और प्रतिवर्ष यह पुरस्कार फिल्म उद्योग से जुड़ लोगों को दिया जाता है ।
Dada Sahab Phalke |
कौन थे दादा सहाब (Dada Saheb Phalke)? इनका फिल्म उद्योग में क्या योगदान है ?
Dada Saheb Phalke को भारतीय सिनेमा का पितामाह कहा जाता है । फिल्म इतिहास के पन्नों को पीछे पलट के देखने पर उनके बलिदान और लगन की कहानी साफ दिखाई देगी।
भारत के सिनेमा का इतिहास पश्चिम के सिनेमा के इतिहास से बहुत बाद का नहीं है. 1895 में लुमियर बंधु ने दुनिया की पहली चलती-फिरती फिल्म बनाई जो कि सिर्फ 45 सेकेंड की थी. इसे पेरिस में दिखाया गया था. एक दो साल के बाद ही 1896-97 में यह भारत में प्रदर्शित की गई.
सन 1910 में बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में " The Life of The Christ" दिखाई गई थी. वो क्रिसमस का दिन था. थियेटर में बैठ कर फिल्म देख रहे घुंडीराज गोविंद फाल्के (जिन्हें बाद में दादा साहाब फाल्के के नाम से नाम से लोगों ने जाना)ने तालियां पीटते हुए निश्चय किया कि वो भी ईसा मसीह की तरह भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे.
Dada Saheb Phalke का योगदान और बलिदानः
Dada Saheb Phalke ने पहली भारतीय फिल्म बनाने के लिए अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी. वो भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर थे. वो एक पेशेवर फोटोग्राफर बनने के लिए गुजरात के गोधरा शहर गए थे. वहां दो सालों तक वो रहे थे लेकिन अपनी पहली बीवी और एक बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया था. इसके बाद उन्होंने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देख डाली. दो महीने तक वो हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे और बाकी समय में फिल्म बनाने के उधेड़बुन में लगे रहते थे. इससे उनके सेहत पर असर पड़ा और वो करीब-करीब अंधे हो गए.
तब की मशहूर पत्रिका नवयुग में लिखे अपने एक लेख ‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में वो लिखते हैं कि इस दौरान शायद ही वो किसी दिन तीन घंटे से ज्यादा सो पाए थे. इसका असर यह हुआ कि वो करीब-करीब अंधे हो गए थे. लेकिन उनके डॉक्टर के उपचार और तीन-चार चश्मों की मदद से वो इस लायक हो पाए कि फिल्म बनाने को लेकर अपने जुनून में जुट पाए.
स्टेषन रोड में तब उनका एक स्टूडियो हुआ करता था।
छोटी शरूआतः
आज भारतीय सिनेमा का कारोबार आज करीब डेढ़ अरब का हो चला है और हजारों लोग इस उद्योग में लगे हुए हैं लेकिन दादा साहब फाल्के ने महज 20-25 हजार की लागत से इसकी शुरुआत की थी. उस वक्त इतनी रकम भी एक बड़ी रकम होती थी.
The First Indian Film "RAJA HARISHCHAND" |
भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने की दादा साहब फाल्के की कोशिशें अपने-आप में एक पूरी गाथा है.
आज फिल्मों में काम करना एक स्टेटस सिंबल जरूर बन गया है मगर उस वक्त फिल्मों में महिलाएं काम नहीं करना चाहती थी. पुरुष ही नायिकाओं के किरदार निभाया करते थे.
दादा साहब फाल्के हीरोइन की तलाश में रेड लाइट एरिया की खाक भी छान चुके थे. लेकिन वहां भी कोई कम पैसे में फिल्मों में काम करने के लिए तैयार नहीं हुई. हालांकि भारतीय फिल्मों में काम करने वाली पहली दो महिलाएं फाल्के की ही फिल्म मोहिनी भष्मासुर से भारतीय सिनेमा में आई थीं. ये दोनों अभिनेत्रियां थीं दुर्गा गोखले और कमला गोखले.
गरीबी के दिन
भारत में फिल्म निर्माण को स्थापित करने में फाल्के साहब का पूरा परिवार लगा हुआ था. गहने बेचकर कई बार उनकी पत्नी ने उनकी मदद की थी. विश्वयुद्ध के दौरान दादा साहब फाल्के के सामने एक वक्त ऐसा आया जब वो पाई-पाई को मोहताज हो गए थे. उस वक्त वो ‘श्रियाल चरित्र’ का निर्माण कर रहे थे. उनके पास कलाकारों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे.
‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में फाल्के साहब लिखते हैं कि उस वक्त उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने आगे बढ़ कर उनसे कहा, ‘इतने से परेशान क्यों होते हो? क्या चांगुणा का काम मैं नहीं कर पाऊंगी? आप निर्जीव तीलियां परदे पर नचाते हैं, फिर मैं तो मानव हूं, आप मुझे सिखाइए. मैं चांगुणा का काम करती हूं लेकिन श्रियाल आप बनिए, मेरे नाम का विज्ञापन मत कीजिए.’
इस फिल्म में बालक चिलया की भूमिका दादा साहब फाल्के के बड़े बेटे निभा रहे थे.
19 सालों के अपने करियर में दादा साहब फाल्के ने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई थीं. गंगावतरण उनकी आखिरी फिल्म थी. यह फिल्म 1937 में आई थी. यह उनकी पहली और आखिरी बोलती फिल्म भी थी हालांकि यह फिल्म असफल रही थी.
अहम बात
1938 में फिल्म इंडस्ट्री सरदार चंदुलाल शाह की अगुवाई में अपनी सिल्वर जुबली मना रहा था. फाल्के साहब को भी बुलाया गया था लेकिन उस सम्मान के साथ नहीं जिसके वो हकदार थे. वो आम श्रोता-दर्शकों के भीड़ में बैठे हुए थे.
उस जमाने के महान निर्देषक वी शांताराम ने उन्हें पहचाना और सम्मान के साथ स्टेज पर ले आए. सिल्वर जुबली समारोह के आखिरी दिन वी शांताराम ने निर्देशकों, निर्माताओं और कलाकारों से अपील की वे सब मिलकर चंदा दे ताकि दादा साहब फाल्के के लिए एक घर बनाया जा सके. हालांकि बहुत कम पैसे इकट्ठा हो सके लेकिन वी शांताराम ने अपने प्रभात फिल्मस कंपनी की ओर से उसमें अच्छी खासी रकम मिलाकर फाल्के साहब को घर बनाने को दिया.
इस तरह नासिक के गोले कॉलोनी में उन्हें एक छोटा सा बंगला आखिरी वक्त में नसीब हो सका. इस बंगले में वो ज्यादा दिन नहीं रह सके.
आखिरी वक्त ऐसे बीताः
आज की फिल्म नगरी और फिल्म कलाकार धन-दौलत और ऐषो आराम की जिदगी जीते है। मगर फल्के का आखिरी वक्त गुमनामी में बीता । फिल्म उद्याग काफी आगे निकल चुका था। उन्होंने जो चिंगारी सुलगाई थी वो बहुत बड़ी आग बन चुकी है। और मुंबई आज माया नगरी के नाम से भी जानी जाती है। उसकी नींव डालने वाले शख्स की मौत गुमनामी में हो गई।
1944 में उनकी एक गुमनाम शख्स की तरह मौत हो गई जबकि तब तक उनका शुरू किया हुआ कारवां काफी आगे निकल चुका था और फिल्मी दुनिया की बदौलत कुछ शख्सियतों ने अपना बड़ा नाम और पैसा कमा लिया था.
आज जो हम बेहिसाब फिल्में और उनके कलाकरों को चकाचैंध में देखते है मानो न मानो इन सबके पीछे केवल दादा सहाब फाल्के का ही नाम है। उन्हें आज फिल्म उद्योग का पितामाह कहा जाता है।
फाल्के पुरस्कार का जन्म
1970 उनका जन्म शताब्दी वर्ष था. इसी साल भारत सरकार ने उनके नाम पर सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार देने की घोषणा की. अभी हाल ही में अमिताभ बच्चन को दादा साहब फाल्के पुरस्कार ने नवाजा गया है.
एक मौके पर आज दादा साहब फाल्के के नाती चंद्रशेखर पुसालकर ने समाचार एजेंसी आईएएनएस को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि हमें तो अब तक किसी भी दादा साहब फाल्के अवार्ड समारोह में बुलाया तक नहीं गया है. मुझे नहीं लगता कि उनके पास हमारे घर का पता भी होगा.