आदिवासियों का जीवन जितना सरल दिखता है, उतना होता नहीं है। बहुत ही कठोर नियमों की डोर से उनका जीवन बँधा होता है। इन नियमों का पालन करना, उनके लिये उतना ही अनिवार्य होता है, जितना कि शरीर के लिये भोजन करना। ये नियम और परम्पराएँ उन्हें विरासत में उनके पूर्वजों से मिली है । भोजन के रूप में आदिवासी समाज जो भी उपजाता है उसे सर्व प्रथम उनकी पूजा कर अपने ग्राम देवता, कुल देवता और इष्ट देवता को अर्पित करता है, उसके बाद ही प्रसाद स्वरूप स्वयं ग्रहण करता है। इस पूरी प्रक्रिया को “जोगाना” कहते है और इस त्यौहार को प्रचलित बोली में चाड़ (देवोत्सव) कहा जाता है। आज हम बस्तर की इसी चाड़ पर चर्चा करते हैं ।
चाड़ गोण्डी शब्द साड़ का अपभ्रंष रूप है। हिन्दी, हल्बी साड़, देवी-देवताओं की विशेष पूजा किये जाने का नाम है। आदिम समाज जिस दिन अपने देवी-देवताओं की विशेष पूजा करता है, उस दिन को वह देव काम करना कहता हैं। इसका अर्थ यह दिन उनके देवता के लिये समर्पित है। समाज यह मानता है अगर उनके पूर्वजों के बनाए नियमों को वह नहीं मानता तो उसके देवी-देवता नाराज होगें और कुछ अहित करेंगें। साथ ही गाँव में अनेके संकट आयेगें। यहंा यह जिक्र करना लाजमी हो जाता है कि आदिम समाज महामारी को भी देवी प्रकोप मानता है। लिहाजा वह नियमों को अक्षरश: पालन करता है।
चाड़ के बारे में चर्चा करते हैं, आदिवासी समाज में वर्ष भर कुछ कुछ अन्तराल में चाड़ मनाने की परम्परा है। आदिवासियों के सामुदायिक जीवन पद्धति में कोई भी कार्य समूह में किया जाता है जो स्वमेव ही उत्सव का रुप ले लेता है। इसलिये आदिवासी समाज में उत्सव को अधिक महŸव दिया जाता है। क्योंकि इसमें सारे गाँव की समान भागीदारी होती है। प्रकृति की गोद में जीवन-यापन करने वाले आदिवासियों के जीवन में मनोरंजन की कमी होती है, इसलिये वह हर पल किसी ऐसे अवसर की तलाश में रहता है, जिसे वह उत्सव के रूप में मना सके।
भादों मास की तृतीया से प्रारम्भ होकर एक से दो माह तक चलने वाला आदिवासियों का सबसे महŸवपूर्ण और बड़ा त्यौहार नवाखानी मनाया जाता है। इसमें सभी प्रकार के अन्न की जोगानी की जाती है। जब सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाँच दिन का उत्सव दीपावली मनाया जाता है, तब उस समय आदिवासी समाज “दीवाड़” मनाता है। दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के दिन आदिवासी समाज अपने पालतू-पशुओं को नये चावल की खिचड़ी बनाकर खिलाता है। इस खिचड़ी को कुम्हड़ा, कोचई (अरबी) ईमली, लौकी, कन्द आदि डालकर पकाया जाता है। गाय-बैल खिचड़ी खिलाने के बाद उसे ही प्रसाद के रूप में समाज के सभी लोग खाते हैं। इस तरह उन सब्जियों की जोगाई की जाती है।
दीपावली के पहले जब खेतों में धान की फसल कटने के लिये तैयार होती है। उस समय आदिवासी समाज चरू नामक त्यौहार मनाता है। यह उत्सव अपने रक्षक देवों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये मनाया जाता है। इसमें फसल काटने की अनुमति माँगी जाती है। यानि यह भी एक प्रकार जोगाने की ही प्रक्रिया है। इस समय फसल के साथ-साथ कुछ विषेष प्रकार की घास भी पकती हैं, जिनसे चटाई, झाड़ू, तीर, पीसवा, टोकनी आदि बनाई जाती है। इन घासें को काटने की अनुमति भी इसी विधान में मांगी जाती है।
पूस के महीने में पुपुल साड़ मनाया जाता है। इस साड़ में सेम और उड़द की पूजा अर्चना (जोगानी) की जाती है। इस पूजा अर्चना में आदिवासी समाज अपने परगना के अन्तर्गत होने वाले उत्सवों के लिये जो गाँव में चन्दा एकत्रित करता है, उसका हिसाब करता है या किसी प्रकार का विवाद हुआ होता है, उसका निपटारा भी करता है। इसके बाद आदिवासी समाज का देव जातरा और मंडई (मेला) का दौर प्रारम्भ होता है।
प्रत्येक परगना का एक मंडादेव (मुख्यदेव) होता है। इस परगना में पहले पूजा पाठ की जाती है। इसकी सूचना “देव निमंत्रण” जिसे गोंडी में “पेन जोड़िंग” कहते है, दिया जाता है। यहाँ मुख्य देवता की पूजा कर फसल या उपज को उन्हें अर्पित करते है। इसके बाद सामूहिक भोज होता है। इसके दूसरे दिन या गाँव वालों की सुविधा के अनुसार गाँव-गाँव में जोगानी यानि पूजा-पाठ की जाती है। प्रत्येक आदिवासी गाँव में एक ग्राम देवती स्थल होता है, जहाँ तलुर मुत्ते (धरती माता) विराजित होती है। यह गाँव का बहुत ही पवित्र स्थान होता है। गाँव के सारे देव काम यहाँ सम्पन्न किये जाते हैं। यहाँ जोगानी करने के बाद “हाना कुड़मा” जिसमें गाँव के सम गोत्रीय लोगों मंदिर नुमा पितृ देव का स्थान में जोगानी करते है। यह गाँव भर के मृत आत्माओं को स्थापित किया हुआ एक छोटा सा मंदिरनुमा संरचना होता है। इसके बाद सभी लोग अपने-अपने घरों में “नुकांग अड़का” में फसल या उपज को अपने कुल देवता और पितृ देवता में अर्पित करते है। नुकांग अड़का का अर्थ चावल की हाण्डी होता है। इस हण्डी को अपने कुल, खानदान के बड़े घर में रख जाता है, यहाँ उस कुल के पितृदेव स्थापित होते है। यह घर खानदान के लोगों के लिये मंदिर जैसा पवित्र होता है। सारे षुभ काम इस घर में ही किये जाते है।
अमुस तिहार
आदिवासी समाज श्रावण मास में अमुस तिहार मनाता है जिसमें जिर्रा भाजी, धोबा भाजी इत्यादि की पूजा अर्चना करता है। वैज्ञानिक मान्यता है कि बरसात में भाजी नहीं खाना चाहिये, इस समय हरे पत्तों में विषाणु होते हैं जो स्वास्थ्य पर असर डालते हैं, इसलिये भाजी खाने से बचने की सलाह दी जाती है। सम्भवतः बरसात में विषाणुयुक्त भाजी खाने से पूरे समाज को किस प्रकार से रोका जाये, यही सोच कर इसे धार्मिक आयाम दिया गया और एक प्रक्रिया बनाई गई जिससे सभी इसका स्वेच्छा से पालन कर सकें। इसी प्रकार आम, इमली को कच्ची अवस्था में तोड़कर खाने से पेचीस होती है जिससे बचने के लिये जोगाने का उपाय जरूरी था।
कुछ उपज ऐसी हैं जिन्हें उपजाने के तुरन्त बाद उपयोग में नहीं लाया जाता जैसे उड़द और महुआ , इन दोनों उपज का आदिवासी समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
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बस्तर के भोज्य पदार्थ
Boda
Bastar Dashahra
शिवकुमार पाण्डेय नारायणपुर
चाड़ गोण्डी शब्द साड़ का अपभ्रंष रूप है। हिन्दी, हल्बी साड़, देवी-देवताओं की विशेष पूजा किये जाने का नाम है। आदिम समाज जिस दिन अपने देवी-देवताओं की विशेष पूजा करता है, उस दिन को वह देव काम करना कहता हैं। इसका अर्थ यह दिन उनके देवता के लिये समर्पित है। समाज यह मानता है अगर उनके पूर्वजों के बनाए नियमों को वह नहीं मानता तो उसके देवी-देवता नाराज होगें और कुछ अहित करेंगें। साथ ही गाँव में अनेके संकट आयेगें। यहंा यह जिक्र करना लाजमी हो जाता है कि आदिम समाज महामारी को भी देवी प्रकोप मानता है। लिहाजा वह नियमों को अक्षरश: पालन करता है।
चाड़ के बारे में चर्चा करते हैं, आदिवासी समाज में वर्ष भर कुछ कुछ अन्तराल में चाड़ मनाने की परम्परा है। आदिवासियों के सामुदायिक जीवन पद्धति में कोई भी कार्य समूह में किया जाता है जो स्वमेव ही उत्सव का रुप ले लेता है। इसलिये आदिवासी समाज में उत्सव को अधिक महŸव दिया जाता है। क्योंकि इसमें सारे गाँव की समान भागीदारी होती है। प्रकृति की गोद में जीवन-यापन करने वाले आदिवासियों के जीवन में मनोरंजन की कमी होती है, इसलिये वह हर पल किसी ऐसे अवसर की तलाश में रहता है, जिसे वह उत्सव के रूप में मना सके।
नयाखानी उत्सव
भादों मास की तृतीया से प्रारम्भ होकर एक से दो माह तक चलने वाला आदिवासियों का सबसे महŸवपूर्ण और बड़ा त्यौहार नवाखानी मनाया जाता है। इसमें सभी प्रकार के अन्न की जोगानी की जाती है। जब सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाँच दिन का उत्सव दीपावली मनाया जाता है, तब उस समय आदिवासी समाज “दीवाड़” मनाता है। दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के दिन आदिवासी समाज अपने पालतू-पशुओं को नये चावल की खिचड़ी बनाकर खिलाता है। इस खिचड़ी को कुम्हड़ा, कोचई (अरबी) ईमली, लौकी, कन्द आदि डालकर पकाया जाता है। गाय-बैल खिचड़ी खिलाने के बाद उसे ही प्रसाद के रूप में समाज के सभी लोग खाते हैं। इस तरह उन सब्जियों की जोगाई की जाती है।
चरू (देवताओं के प्रति कृतज्ञता )
दीपावली के पहले जब खेतों में धान की फसल कटने के लिये तैयार होती है। उस समय आदिवासी समाज चरू नामक त्यौहार मनाता है। यह उत्सव अपने रक्षक देवों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये मनाया जाता है। इसमें फसल काटने की अनुमति माँगी जाती है। यानि यह भी एक प्रकार जोगाने की ही प्रक्रिया है। इस समय फसल के साथ-साथ कुछ विषेष प्रकार की घास भी पकती हैं, जिनसे चटाई, झाड़ू, तीर, पीसवा, टोकनी आदि बनाई जाती है। इन घासें को काटने की अनुमति भी इसी विधान में मांगी जाती है।
पूस के महीने में पुपुल साड़ मनाया जाता है। इस साड़ में सेम और उड़द की पूजा अर्चना (जोगानी) की जाती है। इस पूजा अर्चना में आदिवासी समाज अपने परगना के अन्तर्गत होने वाले उत्सवों के लिये जो गाँव में चन्दा एकत्रित करता है, उसका हिसाब करता है या किसी प्रकार का विवाद हुआ होता है, उसका निपटारा भी करता है। इसके बाद आदिवासी समाज का देव जातरा और मंडई (मेला) का दौर प्रारम्भ होता है।
आम पूजा
चैत्र पूर्णिमा के बाद आदिवासी समाज आमा जोगानी का देवोत्सव मनाता है जिसे गोंडी बोली में मरकांग पोलिहनांग, दण्डामी में मरका पण्डुम, कांकेर, कोण्डागाँव क्षेत्र में चैतरई कहते हैं। सामान्यतः यह माटी तिहार कहलाता है इसमें आम, महुआ, चार (चिरौंजी) भेलवाँ इत्यादि की पूजा की जाती हैै। नारायणपुर, अबुझमाड़ में इसे कोहका साड़ कहते है। अबुझमाड़िया और दण्डामी माड़िया के अलावा नारायणपुर क्षेत्र के मुरिया ढलान की झाड़ियों को काटकर उसी जगह बिछा देते हैं और सूखने के बाद आग लगा दी जाती है, फिर उसी जगह तीन वर्षो तक खेती की जाती है। इस प्रकार किये जाने वाले खेती को पेन्दा खेती या झूम खेती कहते हैं। कोहका साड़ में पेन्दा खेती के लिये लकड़ी काटने की पूजा अनुष्ठान भी की जाती है। इस दिन जागारानी (ग्राम देवती स्थल) में प्रतीक स्वरूप कुछ लकड़ियाँ काटकर बिछा दी जाती है, सूखने पर उसमें आग लगा दी जाती है। बीजा साड़, जिसमें बीज बोने का मूहर्त किया जाता है, इसी स्थान पर बीज बो कर बीजा साड़ मनाया जाता है।प्रत्येक परगना का एक मंडादेव (मुख्यदेव) होता है। इस परगना में पहले पूजा पाठ की जाती है। इसकी सूचना “देव निमंत्रण” जिसे गोंडी में “पेन जोड़िंग” कहते है, दिया जाता है। यहाँ मुख्य देवता की पूजा कर फसल या उपज को उन्हें अर्पित करते है। इसके बाद सामूहिक भोज होता है। इसके दूसरे दिन या गाँव वालों की सुविधा के अनुसार गाँव-गाँव में जोगानी यानि पूजा-पाठ की जाती है। प्रत्येक आदिवासी गाँव में एक ग्राम देवती स्थल होता है, जहाँ तलुर मुत्ते (धरती माता) विराजित होती है। यह गाँव का बहुत ही पवित्र स्थान होता है। गाँव के सारे देव काम यहाँ सम्पन्न किये जाते हैं। यहाँ जोगानी करने के बाद “हाना कुड़मा” जिसमें गाँव के सम गोत्रीय लोगों मंदिर नुमा पितृ देव का स्थान में जोगानी करते है। यह गाँव भर के मृत आत्माओं को स्थापित किया हुआ एक छोटा सा मंदिरनुमा संरचना होता है। इसके बाद सभी लोग अपने-अपने घरों में “नुकांग अड़का” में फसल या उपज को अपने कुल देवता और पितृ देवता में अर्पित करते है। नुकांग अड़का का अर्थ चावल की हाण्डी होता है। इस हण्डी को अपने कुल, खानदान के बड़े घर में रख जाता है, यहाँ उस कुल के पितृदेव स्थापित होते है। यह घर खानदान के लोगों के लिये मंदिर जैसा पवित्र होता है। सारे षुभ काम इस घर में ही किये जाते है।
अमुस तिहार
आदिवासी समाज श्रावण मास में अमुस तिहार मनाता है जिसमें जिर्रा भाजी, धोबा भाजी इत्यादि की पूजा अर्चना करता है। वैज्ञानिक मान्यता है कि बरसात में भाजी नहीं खाना चाहिये, इस समय हरे पत्तों में विषाणु होते हैं जो स्वास्थ्य पर असर डालते हैं, इसलिये भाजी खाने से बचने की सलाह दी जाती है। सम्भवतः बरसात में विषाणुयुक्त भाजी खाने से पूरे समाज को किस प्रकार से रोका जाये, यही सोच कर इसे धार्मिक आयाम दिया गया और एक प्रक्रिया बनाई गई जिससे सभी इसका स्वेच्छा से पालन कर सकें। इसी प्रकार आम, इमली को कच्ची अवस्था में तोड़कर खाने से पेचीस होती है जिससे बचने के लिये जोगाने का उपाय जरूरी था।
कुछ उपज ऐसी हैं जिन्हें उपजाने के तुरन्त बाद उपयोग में नहीं लाया जाता जैसे उड़द और महुआ , इन दोनों उपज का आदिवासी समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
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बस्तर के भोज्य पदार्थ
Boda
Bastar Dashahra
शिवकुमार पाण्डेय नारायणपुर