सदियों से मनाई जा रही गोंचा पर्व पर चर्चा करते हैं जो बस्तर में सैकड़ों वर्षों से मनाई जा रही है। गुण्डिचा यानि गोंचा रथयात्रा जगन्नाथ पुरी उड़िसा से प्ररित जरूर है मगर बस्तर में इसे अलग रूप से मनाते हैं। कहते है जब भगवान् जगग्न्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते है तो गोंचा पर्व होता है । इस दौरान भगवान् को सलामी देने के लिए यहाँ बांस की बनी एक “बन्दुक” जिसे तुपकी कहते है द्वारा सलामी दी जाती है । आइये बात करते है सिलसिले वार किस तरह इस पर्व का विधान किया जाता है ।ज्ञात स्रोतों के आधार पर इस पर्व का सबसे पहला रस्म है चंदन जात्रा
गोंचा पर्व की शुरुवात में चन्दन जात्रा विधान के साथ शुरू हुई ।इस विधान के अनुसार भगवान् 15 दिनों के लिए अनसर काल में होते है तथा अस्वस्थ होते है , इस दौरान भगवान का दर्शन करना वर्जित होता है ।पूरे अनसर काल में भगवान के स्वस्थ लाभ के लिए 360 घर ब्राम्हण आरणक्य समाज द्वारा औषधि युक्त भोग अर्पण किया जाता है।और भगवान् द्वारा लिया गया भोजन को प्रसाद के रूप में भक्तो की प्रदान किया जाता है ।एसी मान्यता है कि इस प्रकार के भोजन को लेकर वर्ष भर स्वस्थ लाभ लिया जाता है अनसर काल उन्होंने बताया कि बस्तर में बंदूक को स्थानीय लोक भाषा में ‘तुपक’ कहा जाता है। ‘तुपक’ शब्द से ही ‘तुपकी’ शब्द बना है। बस्तर का गोंचा पर्व किसी एक समुदाय का नही वरन् बस्तर में निवास कर रहे विभिन्न धर्म एवं जातियों के लोगों का पर्व है। जगदलपुर में ‘गोंचा पर्व’ में तुपकी चलाने की एक अलग ही परंपरा दृष्टिगोचर होती है, जो कि गोंचा का मुख्य आकर्षण है। तुपकी चलाने की परंपरा, बस्तर को छोड़कर पूरे भारत में अन्यत्र कहीं भी नहीं होती। दीवाली के पटाके की तरह तुपकी की गोलियों से सारा शहर गूंज उठता है। बस्तर के जंगलों में एक विशेष प्रकार की बांस पाई जाती है जिसे स्थानीय लोक भाषा में पानी बांस कहा जाता है और इस बांस के दो गांठों के बीच लगभग डेढ़ से दो फुृट की लंबाई होती है। इसके दोनों सिरों से गांठ हटा दी जाय तो यह पोली बांस की नली हो जाती है। इसके एक सिरे पर एक जंगली लता जिसे मालकांगिनी कहा जाता है, स्थानीय भाषा में पेंग। यह एक जंगली लता का फल होता है जो मटर के दाने के समान ठोस छर्रानुमा होता है, की गोलियां नली के पीछे से बांस की बनी छड़ से दबाई जाती है। तुपकी के गोली का रेंज 15 से 20 फीट तक होता है। इसकी भरपूर मार इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार सही निशाने पर लग जाए तो मीठा-मीठा दर्द का आनंद ही कुछ और होता है, करीब से खाई हुयी मार किसी भी व्यक्ति को तिलमिला देने में काफी होता है।
भगवान जगन्नाथ जब नगर भ्रमण पर निकलते हैं तो गोंचा पर्व मनाया जाता है । आदिवासी बहुल बस्तर जिला मुख्यालय में बस्तर गुण्डिचा रथयात्रा की अनूठी प्रथा है जो देश के सिर्फ बस्तर में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत 1410-11 के आसपास मानी जाती है । हांलाकि बस्तर के इतिहास में सटीक तारीख का जिक्र नहीं है।
इतिहासकार रूद्रनारायण पानीग्राही बताते हैं कि 1408 में बस्तर महाराजा पुरूषोत्तम देव ने उड़िसा स्थित जगन्नाथ मंदिर गए थे । और करीब दो साल वहां थे और रथपति की उपधि लेकर आए थे । साथ ही उन्हें अनेक पुरस्कार और 16 चक्कों का रथ मिला था (संभवतः यह प्रतीकात्मक रथ था जिसका निर्माण बस्तर में हुआ। ) फिर यहां जगन्नाथ भगवान को समर्पित रथयात्रा की शुरूआत की
बस्तर जिले में दशहरा के बाद जिस पर्व का बेसब्री से इंतज़ार होता है वह है गोंचा
इस ब्लॉग के माध्यम से मै आज इसी गोंचा पर्व के बारे में विस्तार से चर्चा करने जा रहा हूँ । बस्तर गोंचा पर्व के महत्त्व बहुयामी है ।
गोंचा पर्व को मनाये जाने के कई कारण है -
क्या है चंदन जात्रा
भोजन औषधि युक्त होने की वजह से यह काफी गुणकारी होता है तथा लोग इसमें चमत्कारी प्रभाव महसूस करते है। बहरहाल,भगवान् का अनसर खत्म होने के बाद गोंचा पर्व का अगला विधान शुरू होता है ।
गोंचा पर्व के आयोजनों में है यह सब होते हैं ।
नत्रोत्सव -
गोंचा रथ यात्रा-
हेरा पंचमी-
बहुडा गोंचा
देश शयनी एकादशी
तीन दिनों से जारी अन्नपूर्णा महालक्ष्मी की प्राण-प्रतिष्ठा भी संपन्न किया जाता है। इस मौके पर बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल होती हैं । फिर इसके बाद श्रीगोंचा रथयात्रा पूजा विधान के साथ भगवान जगन्नाथ, माता सुभद्रा एवं बलभद्र स्वामी के विग्रहों को रथारूढ़ कर रथ परिक्रमा मार्ग से होते हुए गुड़िचा मंदिर सिरहासार भवन में स्थापित करते है। ।
रियासत कालीन श्रीश्री जगन्नाथ मंदिर में 06 खंडों में भगवान जगन्नाथ स्वामी, बलभद्र एवं देवी सुभद्रा के विग्रह सात जोड़े और केवल एक प्रतिमा जगन्नाथ भगवान के साथ कुल बाईस प्रतिमाओं का एक साथ पूजा अर्चना कर नेत्रोउत्सव पूजा की जाती है । वैदिक मंत्रोच्चार के साथ हवन-पूजन पश्चात सभी प्रतिमाओं को नए वस्त्र और रजत आभूषण से पहनाए जाते है। ।
इस अवसर पर बड़ी संख्या में श्रद्धालओं ने दर्शन का पुण्य लाभ लेने के साथ ही प्रसाद ग्रहण करते हैं । भगवान जगन्नाथ, माता सुभद्रा एवं बलभद्र स्वामी के बाईस प्रतिमाओं की तीन रथों में निकाली जाने वाली रथयात्रा देश-विदेश के किसी भी श्रीश्री जगन्नाथ मंदिर में नहीं होती है। श्रीश्री जगन्नाथ मंदिर में सात खंड हैं, जिसका रियासत कालीन नामकरण इस प्रकार है
जगन्नाथ जी की बड़े गुड़ी, मलकानाथ मंदिर, अमायत मंदिर, मरेठिया मंदिर, भरतदेव मंदिर तथा कालिकानाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है, श्रीराम मंदिर के साथ सात खंडों में स्थापित हैं।
श्री जगन्नाथ मंदिर परिसर में आयोजित नेत्रोत्सव के शुभ अवसर पर 360 घर ब्राह्मण समाज के पदाधिकारी शामिल होते है।
611 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा की शुरुआत चन्दन जात्रा के साथ प्रतिवर्ष शुरू होती है ।निशुल्क उपनयन संस्कार, वृद्ध जनों का सम्मान, तुपकी कारीगरों का सामान, छप्पन भोग एवं सास्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं
इस दौरान कुछ अन्य सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं उनमें प्रमुख है:-
निशुल्क उपनयन संस्कार,
वृद्ध जनों का सम्मान,
तुपकी कारीगरों का सामान
गोंचा महापर्व में तीन रथों की परिक्रमा होगी संचालन की जिम्मेदारी गोंचा दिवस के लिए आसना, करीत गाँव, जैबेल, बनियागांव, तथा तालुर के क्षेत्रीय समिति को दी गयी है वहीँ दूसरी तरफ दूसरी तरफ बहुडा गोंचा के दिन रथ वापसी संचालन का जिम्मा बिन्ता, जगदलपुर, गुनपुर, कुम्हली, कोंडागांव, तथा तितिर गाँव को दिया जाता है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर अंचल के जगदलपुर नगर में मनाए जाने वाले गुण्डिचा रथयात्रा पर्व में, एक अलग ही परंपरा, विशेषता एवं छटा देखने को मिलती है। यहां गुण्डिचा को गोंचा कहा जाता है। विशेषताओं में प्रथम तो यह कि तीन विशालकाय रथों को परंपरागत तरीकों से फूलों तथा कपड़ों से सजाया जाता है और भगवान के विग्रहों को आरूढ़ कर रथयात्रा मनायी जाती है। जगन्नाथ भगवान के साथ कुल 22 प्रतिमाओं का एक साथ एक ही मंदिर में स्थापित होना, पूजित होना भी तथा इन 22 विग्रहों की एक साथ रथयात्रा भी भारत के किसी भी क्षेत्र में नहीं होता, बल्कि विश्व के किसी भी जगन्नाथ मंदिर में एक साथ 22 प्रतिमाओं की पूजा नहीं होती, जैसा कि जगदलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर में होता है। रियासतकाल में जगन्नाथ, बलभद्र तथा देवी सुभद्रा देवी के 22 विग्रहों को छः रथों में तथा एक रथ भगवान श्रीराम का कुल सात रथों का संचालन किया जाता था, वर्तमान में लकड़ी के तीन रथों का संचालन किया जाता है।
पाणीग्राही ने बताया कि भगवान जगन्नाथ के सम्मान में तुपकी चलाने की प्रथा जो बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर के अलावा भारत में कहीं और नहीं होता, यहां तक जगन्नाथपुरी में भी नहीं।
इन दो विशेषताओं ने बस्तर गुण्डिचा को विश्व प्रसिद्ध बना दिया है जिसे देखने के लिये देशी-विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष जगदलपुर पहुंचते हैं।
तुपकी क्या है?
पाणीग्राही ने बताया कि इन तुपकियों को ग्रामीण अंचल के आदिवासी तैयार करते हैं। तरह-तरह की तुपकियों का निर्माण अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर करते हैं। एक मान्यता के अनुसार रियासत कालीन गोंचा पर्व में भगवान के विग्रहों को सलामी देने की एक प्रथा थी जो कालान्तर में बंद कर दिया गया, जिसके स्थान पर बस्तर अंचल के ग्रामीणों ने इस तुपकी का अविष्कार कर उस प्रथा तब से लेकर आज पर्यन्त कायम रखा है। आज के इस दौर में भगवान को तुपकी के माध्यम से हर हाथ और हर व्यक्ति सलामी देता है।
Goncha Parv
6/28/2019
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