जुलाई के बाद बस्तर में त्योहारों का
मौसम हो जाता है, गोंचा के बाद दशहरा आता है फिर एक के बाद एक त्यौहार आते है , और फिर वो थमने का नाम नही लेते
है ,
बहरहाल, मै आज एक एसे त्यौहार की बात करने जा रहा हूँ जो एक दो दिन नही बल्कि
पूरे 75 दिनों तक चलता है ,
जो छत्तीसगढ़ क्षेत्र में रहते है वे इस त्यौहार से
अच्छे से परिचित होंगे मगर क्या- और क्यों इस त्यौहार को मनाने की परम्परा है शायद
इससे परिचित नही होंगे. इस त्यौहार का नाम है – “दशहरा (bastar dussehra festival of chhattisgarh)bastar dussehra
अब आप सोचेंगे कि इसमें
क्या खास बात है ? दशहरा तो सभी जगहों पर मनाया जाता है /
यही सवाल है जिसका जवाब देने के देने के लिए
मै यह ब्लॉग आप तक पंहुचा रहा हूँ / वैसे इसके बारे में मैंने अपने अगंरेजी ब्लॉग
के संस्करण में पूरा लिखा है (क्लिक कीजिये Notes for Students पर )
क्यों अलग है bastar dussehra
चलिए बात करते है क्या ख़ास बात है bastar dussehra festival of chhattisgarh में !
सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात तो यह है
कि bastar dussehra festival of chhattisgarh एक या दो दिन नहीं बल्कि पूरे 75 दिनों तक चलता है / और यह परम्परा तक़रीबन
600 वर्षों से चली आ रही है /
दूसरी बात यह है कि बस्तर में मनाये
जाने वाले दशहरे को राम की रावण पर विजय की याद में नही मनाया जाता है –बल्कि महाराजा पुरषोत्तम देव
जब ओड़िसा से बहुत सारा धन- पुरस्कार के तौर पर लेकर लौटे तो उन्हें “रथ पति” उपाधि
मिली / वहीं से देवी दंतेश्वरी की अनुमति
से दशहरा (bastar dussehra) मनाने की परम्परा चल पड़ी / इतिहास
कारों की माने तो महाराजा के बस्तर वापसी
को यहाँ दशहरे के रूप में मनाया जाता है /
आइये बात करते है क्या क्या विधान होते है इसमें और किस तरह उन्हें पूरा किया जाता है /
एक रस्म का नाम है “पाट जात्रा”
क्या है पाट जात्रा ?
यह वह रस्म है जिसके तहत उस लकड़ी पूजा
की जाती है जिससे विशाल रथ का निर्माण होना होता है / इस लकड़ी को “ठुरलू खोट्ला”
कहा जाता है / इस रस्म के दौरान बकरा, मछली की बलि दी जाती है , इस मौके पर बड़ी
संख्या में लोग मौजूद रहते है जिसमे पुजारी, मांझी सरकारी अधिकारी इत्यादि शामिल
होते है / परम्परा के अनुसार इस लकड़ी को
बेडा उमर गाँव से लाया जाता है / यह रस्म हरेली अमावस्या के दिन किया जाता है।
इसके बाद एक –के –बाद एक रस्म की जाती
है , इनके नाम है
डेरी गड़ाई :- इसमें रस्म में एक खम्बे
की स्थापना की जाती है , और त्यौहार की शुरूआती रस्मे निभायी जाती है, इसके बाद रथ निर्माण का कार्य किया जाता है । इस विधान में (bastar dussehra )बस्तर दशहराा बिना किसी रूकावट के चले यह भी प्रार्थना की जाती है।
पाटजात्रा विधान के बाद बस्तर दशहरेbastar dussehra का सबसे महत्वपूर्ण रश्म डेरी गड़ाई विधान होता है। डेरी गड़ाई दूसरी महत्वपूर्ण रस्म है। इस रस्म के बाद ही रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाने के साथ रथ निर्माण का सिलसिला शुरू होता है। इस विधान के तहत बस्तर जिले के ग्राम बिरिंगपाल के जंगल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को सीराभवन में विशेष स्थान पर गाड़कर स्थापित किया जाता है। दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के अनुसार चूंकि पितृ पक्ष (श्राद्ध पक्ष) में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता, इसलिए bastar dussehra बस्तर दशहरा (bastar dussehra) हेतु विशालकाय दोमंजिला रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ करने तथा रियासतकालीन दशहरा के समय से रथ निर्माण के लिए आने वाले ग्रामीण आदिवासी कारीगरों के रहने और ठहरने की व्यवस्था हेतु बनाया जाने वाले आवास के लिए आदिवासी परम्परा के अनुसार निर्मित अस्थाई भवन सिरहासार चौक में बनाया जाता था, जो आज भी जारी है। अस्थाई भवन के लिए साल के पेड़ों की टहनियों को दो नियत स्थानों पर गाडने की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई रस्म कहते है जो वर्तमान में bastar dussehra के एक पारंपरिक पूजा-विधान के रूप में आज भी अनवरत जारी है। यह रस्म साल के टहनियों को स्थापित करने से पहले इसके लिए खोदे गये गड्ढे में परंपरानुसार दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी द्वारा पूजा अनुष्ठान संपन्न कर पूजा के उपयोग में लाई जाने वाली सामग्री लाई, अण्डा, जीवित मोंगरी मछली डाल, साल की टहनियों को गाड़ा गया। उल्लेखनीय है कि विश्वविख्यात बस्तर दशहरा (bastar dussehra)के रथ के निर्माण की जवाबदारी वर्षों से बेड़ाउमरगांव एवं झारउमरगांव के बढ़ईयों द्वारा संपन्न कराई जाती है।
पाठ-जात्रा से प्रारंभ हुई पर्व की दूसरी रस्म को डेरी गड़ाई कहा जाता है। साल प्रजाति की दो शाखायुक्त डेरी, स्तभनुमा लकड़ी का लगभग 10 फुट का ऊंचा होता है, जिसे परम्परा के अनुसार दशहरा पर्व के प्रारंभ होने के पूर्व स्थानीय सिहरासार चौक में स्थापित की जाती है। 15 से 20 फीट की दूरियों पर दो गड्ढे किए जाते हैं इन गड्ढों में जनप्रतिनिधियों और bastar dussehra बस्तर दशहरा समिति के सदस्यों की उपस्थिति में पुजारी के दो शाखा युक्त डेरियों में हल्दी, कुमकुम, चंदन का लेप लगाकर दो सफेद कपड़े बांधकर पूजा सम्पन्न करता है। इन गड्ढों पर डेरी स्थापित करने के पूर्व जीवित मोंगरी मछली और अण्डा छोड़ा जाता है, तथा फूला लाई डालकर डेरी स्थापित की जाती है। इस शाखा युक्त डेरी की गड़ाई को एक तरह से मण्डापाच्छादन का स्वरूप माना जाता है। इस डेरी की पूजा-पाठ के साथ स्थापना करके दशहरा पर्व निर्विघ्न सम्पन्न करने की कामना की जाती है। इस डेरी गड़ाई के पश्चात रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। यह रस्म भादों शुक्लपक्ष द्वादश अथवा तेरस के दिन पूर्ण कर ली जाती है, इस डेरी गडाई के लकड़ी और निर्धारित गांवों से कारीगरों का आना प्रारंभ हो जाता है। डेरी गड़ाई अर्थात स्तम्भारोहण के पश्चात् रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जाती है।दशहरा पर्व में विभिन्न रस्मों के दौरान दी जाने वाली मोंगरी मछली की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी रियासत काल से समरथ परिवार को दी गई है। इसी क्रम में डेरी लाने का कार्य बिरिंगपाल के ग्रामीणों के जिम्मे होता है।
(courtesy: Bastar Dushhara: By Rudra Narayanay Panigrahi)
काछन गादी :-
Kachhan gadi ka Jhula (Photo-Abhishek Thakur) |
1721 से 1725 के बीच महाराजा दलपतदेव के समय काछिन गादी की शुरूआत मानी जाती है। बस्तर दशहरे (bastar dussehra)की शुरूआत 1408 ई में महाराजा पुरूषोत्तम देव के समय से शुरू हुई थी। इस रस्म में पनका जाति की
कन्या कांटे के झूले में बैठती है, परम्परानुसार कन्या में काछन देवी सवार होती है
और वह दशहरे को शुरू करने की अनुमति देती है / राज परिवार के सदस्य यह अनुमति
प्राप्त करते है /
कलश स्थापना :-
इस रस्म के तहत सभी प्रमुख मंदिरों में पवित्र कलश स्थापित किया
जाता है और इसे के साथ नवरात्र पर्व की भी शुरुआत होती है / जिन मंदिरों में कलश स्थापति किया जाता है वे है
दंतेश्वरी मंदिर, मावली मंदिर, शीतला मंदिर, कंकाली मंदिर, कर्नाकोतिन मंदिर,
हनुमान तथा विष्णु मंदिर
जोगी बिठाई :-
हल्बा जाती का एक जोगी
बिना भोजन दशहरे की समाप्ति तक स्थानीय सीरासार में एक छोटे से गड्डे में बैठता है
, और कामना करता है की दशहरा निर्बाध रूप से चले, लोग बड़ी संख्या में जोगी केदर्शन के लिए आते है, इसमें उस लकड़ी के साथ मावली माता के कृपाण की पूजा भी की जाती है । इस विधान में दिवगत जोगियों की भी पूजा अर्चना की जाती है एवं उनसे आर्शिवाद मांगा जाता है ताकि दशहरा निर्विघ्न रूप से हो सके । (योगी को ही जागी कहा जाता है।)
इस रस्म के शुरूआत के बारे में कहा जाता है कि एक योगी जो दशहरे के तमाम रस्मों को सुचारू रूप से चल सके एसी प्रर्थाना करता हुआ नौ दिनों तक उपवास रखा , इस दौरान वह आहार के रूप में सिर्फ पानी ही पीता था। लोग उसे जोगी कहने लगे । धीरे धीरे उसकी प्रसिद्ध इतनी बढ़ गई कि राजा स्वयं उस योगी से मिलने आए और त्यौहार की समाप्ति के बाद उसे उपहार देकर अपनी कृतज्ञता प्रगट की।तभी से जोगी के बैठने की परम्परा आरम्भ हुई ।
इस रस्म के शुरूआत के बारे में कहा जाता है कि एक योगी जो दशहरे के तमाम रस्मों को सुचारू रूप से चल सके एसी प्रर्थाना करता हुआ नौ दिनों तक उपवास रखा , इस दौरान वह आहार के रूप में सिर्फ पानी ही पीता था। लोग उसे जोगी कहने लगे । धीरे धीरे उसकी प्रसिद्ध इतनी बढ़ गई कि राजा स्वयं उस योगी से मिलने आए और त्यौहार की समाप्ति के बाद उसे उपहार देकर अपनी कृतज्ञता प्रगट की।तभी से जोगी के बैठने की परम्परा आरम्भ हुई ।
मंगरमुही
यह एक प्रकार के एक्सल है जो लकड़ी का बना होता है । इसे लगाने के लिए बकायदा पूजा-पाठ की जाती है। क्योंकि इसी पर पूरे रथ परिचालन का भार होता है। इसे डी मंगरमुही की संज्ञा दी जाती है और इस मंगरमुही लकड़ी के उपर दो मंजिला रथ आकार लेती है। । मंगरमुही के दोनों छोर पर रस्सी बांध कर रथ को आगे-पीछे खीचने की व्यवस्था बनाई जाती है। चार या आठ चक्कों के लिए तीनों मंगरमूही लकड़ियों को जोड़ने के बाद, परम्परानुसार बकरे की बलि के साथ आकार दी जाती है। इसके बाद रथ की ऊंचाई देने का क्रम किया जाता है। (पुस्तक- बस्तर दशहरा, लेखक- रुद्र नारायण पानीग्राही)
इसे भी पढ़िए :-बस्तर के प्रमुख व्यंजन ?
रथ परिक्रमा :-
इस रस्म में विशाल काष्ठ रथ की पूरे छः
दिनों तक परिक्रमा की जाती है जिसमे मै देवी दंतेश्वरी सवार होती है / यह परिक्रमा
गोलबाजार होते हुए तहसील चौक फिर वापस दंतेश्वरी मंदिर आती है / मोंगरापाल और चोलनार के ग्रामीण फूलरथ और रैनी रथ को परम्परानुसार सजाते हैं । इस रथ को विजयी रथ भी कहा जाता है। रथ सजाने के कार्य को रथ सिंघारनी कहते हैं सम्भवतः सिंघार से तात्पर्य श्रंगार है।
कलश जिसे धामन गुड़ी कहते है। इसे सिंयाड़ी के पत्तों से ढक दिया जाता है जिसे थरला कहते है। इसे धामन छावनी कहा जाता है।
बेल पूजा (फोटो अभिषेक ठाकुर) |
बेल पूजा
राज परिवार के सदस्य सरगीपाल स्थित बेल पेड़ से फल तोड़कर दंतेश्वरी मंदिर लाते है। इसमें बेल देवी की पूजा की जाती है। यह नवरात्र की सप्तमी को यह होता है। इसके पीछे किवदंती यह प्रचलित है कि महाराजा बस्तर एक बार इस क्षेत्र में शिकार के दौरान अपना छत्र भूल आए थे जिसे लेने वे वापस वहां गए तो आकाशवाणी हुई कि बेलदेवी दे उन्हें पुनः बुलाया है। तभी से दशहरे में सरगीपाल की बेल देवी को भी आमंत्रित किया जाता है। दशहरे में बस्तर जिले मेे मौजूद समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया जाता है।
निशा जात्रा/महा अष्ठमी :
राज प्रवीर के सदस्य द्वारा बलि के पूर्व बकरे का अनुष्ठान (फोटो- अभिषेक ठाकुर ) |
दंतेश्वरी मंदिर तथा अनुपमा चौक के पास यह
विधान सम्पन्न किया जाता है /इस पूजा में साल में एक बार ही खाम्बेश्वरी देवी के मंदिर के कपाट खुलते है , जिसमे राज परिवार के सदस्य हिस्सा लेते है और अष्टमी की पूजा अर्चना करते है / नीशा जात्रा नामक इस विधान के लिए भोग प्रसाद तैयार किया जाता है जिसे यादव समाज के लोग ही करते है / सबसे पहले निशा गुढ़ी में जल चढ़ाया जाता है और फिर इसमें शक्ति पूजा की जाती है इसके बाद 12 बकरों की बलि दी जाती है / फिर , सात हंडियों में भोजन तैयार किया जाता है और प्रसाद के रूप में उसका वितरण किया जाता है।चांवल खीर उड़द दाल और उड़द से बने बड़े बनाकर 24 हंडयों में रखा जाता है जिसके मुंह कपड़े से ढके होते हैं। पूजा के बाद भोग सामग्रियों में प्रयुक्त हंडियों को तोड़ दिया जाता है ताकि उन हंडियों का दोबारा उपयोग न हो सके।
nisha जात्रा के दौरान मटकों में भोग प्रसाद (फोटो- अभिषेक ठाकुर ) |
कुवांरी पूजा/ जोगी उठाई / मावली परघाव
:
यह विधान दंतेश्वरी मंदिर, सीरह सार और
गीदम रोड स्थित कुटरू बड़ा में किया जाता है /कहते है इस रस्म में पूरे क्षेत्र से सभी देवी देवता बस्तर आते है जिनका स्वागत परम्परागत रीति रिवाज से राज परिवार के सदस्य करते है / सभी देवी देवता मान्यता के अनुसार देवी
मावली के मंदिर में आते है और देवी मावली के सम्मान में इस रस्म में शामिल होते है "मावली परघाव " के शाब्दिक अर्थ मावली देवी का स्वागत होता है / और माता की डोली को राज परिवार के सदस्य अपने कंधो पर उठा कर देवी दंतेश्वरी मंदिर तक ले जाते है / फोटो ग्राफर अभिषेक ठाकुर ने इस रस्म के कुछ फोटोज को अपने कैमरे में कैद किया है /
इतिहास करों के अनुसार कर्नाटक के मल्वल्या गॉव की देवी है मावली / जब तक बस्तर में छिन्द्क नागवंश का शासन था मावली देवी की सर्वत्र पूजा होती थी जो नौवी से चौदहवी सदी तक चली /
बाद में चालुक्य नरेश अन्नम देव ने बस्तर में शासन किया तो विधिवत मावली देवी को भी कुलदेवी के रूप में मान्यता दी और प्रतिवर्ष दशहरे में मावली देवी का स्वागत बड़े ही धार्मिक रस्म के तौर पर किया जाता था / और यही स्वागत को "मावली परघाव " कहा जाता है /
Welcome of deity Mavli |
इतिहास करों के अनुसार कर्नाटक के मल्वल्या गॉव की देवी है मावली / जब तक बस्तर में छिन्द्क नागवंश का शासन था मावली देवी की सर्वत्र पूजा होती थी जो नौवी से चौदहवी सदी तक चली /
राजकुमार बस्तर -कमल चंद भंज देव |
भीतर रैनी रथ परिक्रमा :
यह कुम्हड़ा
कोट में किया जाता है
बहार रैनी :
काछन जात्रा /मुरिया दरबार :
मुरिया
दरबार में प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित जिले के प्रशासनिक अधिकारी, दशहरा समिति से जुड़े
सदस्य, मांझी चालकी, इसमें जिले से जुडी समस्यायों के निराकरण के बारे में चर्चा
की जाती है/
मुरिया दरबार के बारे में विस्तृत में पढ़िए लिंक पर क्लिक कीजिए
कुटुंब जात्रा विधान :
इस विधान में आमंत्रित देवी देवताओं की
विदाई दी जाती है
दंतेश्वरी माई की विदाई :
पूरे रस्मे रिवाजों के साथ, दंतेवाडा
से आई दंतेश्वरी देवी की विदाई दी जाती है/ साथ वे सभी देवी देवताओं को विदाई दी जाती थी जो दशहरे में यहाँ आये हुए थे /
बस्तर कैसे पहुचे ? जानने के लिए व क्या खास चीज़े है जिसे आप देख सकते? क्लिक्क कीजिये यहाँ
मेरे अन्य ब्लॉग है :-
"नयाखानी "क्या है ?
क्लिक कीजिये नयाखानी पर